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________________ (ल०-) सूत्रार्थस्त्वयम् - अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरू पां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः तीर्थकराः, तेषां चैत्यानि प्रतिमालक्षणानि अर्हच्चैत्यानि । चित्तम्-अन्तःकरणं, तस्य भावः कर्म वा, वर्णदृढादिलक्षणे ष्यजि ('वर्णदृढादिभ्यः ष्यञ्च' पा० ५-१-१२३) कृते 'चैत्यं' भवति । तत्रार्हतां प्रतिमाः प्रशस्त समाधिचित्तोत्पादकत्वादर्हच्चेत्यानि भण्यन्ते । तेषां, किम् ?'करोमि' इत्युत्तमपुरुषैकवचननिर्देशनात्माभ्युपगमं दर्शयति । किम् ? इत्याह ('कायोत्सर्ग') कायः शरीरं, तस्योत्सर्गः कृताकारस्य स्थानमौनध्यानक्रिया व्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य परित्याग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्गम् । ___(पं०-) 'कृताकारस्ये' ति विहितकायोत्सर्गार्हशरीरसंस्थानस्य उच्चरितकायोत्सर्गापवादसूत्रस्य वेति । (ल०-) आह-"कायस्योत्सर्ग इति षष्ठ्या समासः (प्र०... षष्ठीसमासः) कृतः, अर्हच्चैत्यानामिति च प्रागावेदितं, तत्किम् अर्हच्चैत्यानां कायोत्सर्ग करोमीति ?' नेत्युच्यते, षष्ठीनिर्दिष्टं तत्पदं पदद्वयमतिक्रम्य मण्डूकप्लुत्या वन्दनप्रत्ययमित्यादिभिरभिसंबध्यते । ततश्च ‘अर्हच्चैत्यानां वन्दनप्रत्ययं करोमि कायोत्सर्गमि' ति द्रष्टव्यम् । तत्र 'वन्दनम्' = अभिवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनः प्रवृत्तिरित्यर्थः । तत्प्रत्ययं' = तन्निमित्तं 'तत्फलं मे कथं नाम कायोत्सर्गादेव स्याद्' इत्यतोऽर्थ मित्येवं चैत्य अर्थात् प्रतिमा चित्त यानी अन्तःकरण का भाव या कर्म यह चैत्य है। चित्तशब्द को पाणिनी व्याकरण के सूत्र ५-१-१२३ 'वर्णदृढादिभ्य ष्यञ्च' से वर्ण, दृढादि अर्थ में 'स्यञ्च' प्रत्यय लगाने से चैत्य शब्द बनता है। परमात्मा के प्रति चित्त में जो भक्तिभाव उल्लसित होता है, उससे भगवत् प्रतिमा का निर्माण किया जाता है इसलिए यह प्रतिमा चित्त के मूर्तिमंत भाव स्वरूप हुई, अथवा ऐसे भावपूर्ण चित्त का कर्म हुई, इसलिए भी प्रतिमा चैत्य कही जाती है। प्रतिमा चित्त के प्रशस्त समाधि भाव को उत्पन्न करती है अतः वह कारण हुई और चित्तभाव इसका कार्य हुआ। 'घृतआयुः' की तरह कारण में कार्य का उपचार करने से प्रतिमा चित्तभाव यानी चैत्य कहलाती है। वह समाधि भाव को चित्त की क्रिया भी कही जा सकती है। इसलिए प्रतिमा चित्त-कर्म अर्थात् चैत्य शब्द से संबोधित हो सकती है। ऐसे अर्हद् चैत्यों का, इतना 'अरिहंत चेइयाणं, का अर्थ हुआ। प्रश्न होता है, 'क्या?' उत्तर है 'करेमि' । यह पद व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से उत्तमपुरुष एक वचन पद है अर्थात् स्वात्मा के ग्रहण का सूचक है इसलिए उसका अर्थ होता है कि 'मैं करता हूँ' क्या करता हूँ ? 'काउस्सग्गं' अर्थात् कायोत्सर्ग, शरीर का परित्याग, लेकिन वह साकार शरीरत्याग करता हूँ। 'साकार' के दो अर्थ है,- (१) कायोत्सर्गयोग्य शरीराकृति बना कर, अर्थात् प्रलंबित बाहु वाला खड़ा शरीर रख कर इसके हलन चलन का त्याग। (२) उच्छवास-निश्वास इत्यादि आकार यानी अपवाद रखते हुए काया का परित्याग । वह भी स्थान. मौन एवं ध्यान क्रिया के अतिरिक्त दूसरी कोई क्रिया न करना अर्थात् और किसी भी क्रिया से सम्बन्ध न करने की दृष्टि से काया का परित्याग करना; ऐसे कायोत्सर्ग को मैं करता हूँ इतना अर्थ हुआ। प्र०—'काया का उत्सर्ग कायोत्सर्ग'-इस प्रकार षष्ठी विभक्ति से समास किया, और 'अर्हत्-चैत्यों का यह पहले कह आये हैं, तब 'अर्हत्-चैत्यों का कायोत्सर्ग करता हूँ, क्या ऐसा अन्वय अर्थात् अर्थ संबन्ध है ? उ०- नहीं, षष्ठी विभक्ति वाले निर्दिष्ट अरिहंत चेइयाणं' पद का अन्वय, अनन्तर के 'करेमि' 'काउस्सागं' इन दो पदों का उल्लङ्घन कर, मण्डूक-प्लुति यानी मेंढक के कूदने की रीति से 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि पदों के २६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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