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________________ २५. अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं (अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरेभ्यः) (ल० - सर्वज्ञतानिषेधकमतनिरास:-) एते च कैश्चिदिष्टतत्त्वदर्शनवादिभिबौद्धभेदैरन्यत्र प्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा एवेष्यन्ते 'तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु' इति वचनाद्, एतन्निराचिकीर्षयाह - 'अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरेभ्यः' ।अप्रतिहते = सर्वत्राप्रतिस्खलिते क्षायिकत्वाद्, वरे = प्रधाने, ज्ञानदर्शने' विशेषसामान्यावबोधरूपे धारयन्तीति समासः; सर्वज्ञानदर्शनस्वभावत्वे निरावरणत्वेन, अन्यथा तत्त्वायोगात् । ___ (पं० -) 'तत्त्वमिष्टं तु पश्यत्वि'ति - 'सर्वं (प्र० ... दूरं) पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे ।। १ ।। इति संपूर्णश्लोकपाठः । 'सर्वज्ञाने'त्यादि = सर्वज्ञानदर्शनस्वभावत्वे नयान्तराभिप्रायेण सार्वदिके सर्वज्ञ-सर्वदर्शित्वरूपे सति, 'निरावरणत्वेन' = घातिक्षयात्, अप्रतिहत - वरज्ञानदर्शनधरा भगवन्तः । व्यतिरेकमाह 'अन्यथा' = उक्तप्रकारव्यतिरेकेण, 'तत्त्वायोगात्' = अप्रतिहतवर - ज्ञानदर्शनधरत्वायोगात्; यतो न निरावरणा अपि धर्मास्तिकायादय उक्तरूपविकलाः सन्तः, एकेन्द्रियादयो वा उक्तरूपयोगेऽप्यनिरावरणाः, प्रकृतसूत्रार्थभाज इति। घूम रहता है। महात्मा लोग इन अति भयंकर भावशत्रुभूत मिथ्यात्वादि को दानादि धर्म के कड़े अभ्यास से नष्ट कर देते हैं। भगवान इस धर्मचक्र से वर्तते हैं, क्यों कि भगवान की आत्मा अपने में विद्यमान विशिष्ट तथाभव्यत्व के बल पर वरबोधिलाभ से ले कर उस उस प्रकार के औचित्य पूर्वक की जाती मोक्ष-प्राप्ति पर्यन्त इसी ढंग का वर्तन करती हैं। तात्पर्य अन्य जीवों की अपेक्षा तीर्थंकर होने वाले जीव का भव्यत्व जो विशिष्ट कोटि का होता है, इसकी वजह से चतुरन्त श्रेष्ठ धर्मचक्र में प्रर्वतना होता है। हां, ऐसे प्रवर्तन में सम्यक्त्व सहकारी कारण है, इसलिए विशिष्ट कारण तथाभव्यत्व अनादि काल का होने पर भी वरबोधि सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद ही वैसा प्रवर्तन होता है। वह भी प्रवर्तन. मोक्ष पाने पर तथाभव्यत्व न रहने से और अन्य शरीरादि सहकारी से, मोक्षप्राप्ति पर्यन्त ही होता है, इसके बाद मोक्ष में नहीं। यह वर्तन भी उस अवस्था के योग्य औचित्य पूर्वक होता है। अतः इस प्रकार धर्म के वर चतुरन्त चक्र से वर्तन करने के स्वभाव वाले अर्हत् परमात्मा होते हैं, इसलिए वे धर्म-वर-चतुरन्त-चक्रवर्ती हैं । यह २४ वां पद हुआ। ६ठी संपदा का उपसंहार :- धम्मदयाणं पद से ले कर इस पद तक स्तोतव्य संपदा की ६ठी विशेषोपयोग संपदा हुई, कारण, स्तोतव्य श्री अरहंत प्रभु का विशेष उपयोग धर्मदातापन, धर्मदेशकता, धर्मनायकता, धर्मसारथिपन और धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिपन, इन पांच से सिद्ध है। २५. अप्रतिहत वरनाणदंसणधराणं सर्वज्ञतानिषेधक मतके निरासार्थ :अब 'अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं' पद का अर्थ दिखला कर विवेचन करते हैं। इस पद से अर्हत् परमात्मा में अप्रतिहत सर्वज्ञता का प्रतिपादन करना है। यह प्रतिपादन जो लोग किसी भी आत्मा में सर्वज्ञता नहीं मानते हैं, उनकी वह मान्यता गलत है इसका सूचन करने के लिए है। वे लोग कहते हैं - 'सर्वं पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेद्, एते गृध्रानुपास्महे ॥' १८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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