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________________ आद्यधर्मस्थान ढका हुआ रत्नकरण्डक आजीवक मत का खण्डनः २४ धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं कैवल्यमोक्ष का असंभव १७८ धर्मचक्र श्रेष्ठ कैसे ? १९० संसार से सभी भव्यों का उच्छेद क्यों नहीं ? (१) धर्म उभयलोकहितकारी: १९१ सर्वभव्योच्छेद मानने में आपत्ति चक्र इस लोक में उपकारक संसार औपचारिक नहीं अर्हद्-धर्म ही त्रिकोटि परिशुद्ध, २७ जिणाणं जावयाणं एकान्त-अनेकान्त तत्त्वव्यवस्था १९२ कल्पित अविद्या के प्ररुपक तत्वान्तवादी का मत १०९ धर्मचक्र यह चतुरन्त (चाउरन्त) दो प्रकार से 'तत्त्वान्त' का अर्थ - माध्यमिक का यह मत चारित्र में दानादि ४ धर्म, उनसे ४ संज्ञानाश कैसे? १९३ बौद्ध की ४ शाखाएं (१) वैभाषिक (२) सौत्रान्तिक १८० धर्म यह चक्रशस्त्र कैसे ? (३) योगाचार (४) माध्यमिक * बुद्ध के १० नाम दानादि धर्मो से मिथ्यात्वादिका नाश कैसे ? १९४ बिना निमित्त भ्रान्ति कैसे ? असत् रागादि का २५ अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं निग्रह क्या ? असत् यह भ्रान्तिनिमित्त क्यों नहीं ? १८१ सर्वज्ञता का निषेधक बौद्ध मत १९५ मृगजल का अनुभव व तत्कारण असत् नहीं ५८२ अप्रतिहत कैसे ? वर कैसे ? २८. तिण्णाणं तारयाणं ज्ञान-दर्शन: सामान्य-विशेष । १९६ अनन्त मत: * संसारावर्त कालाधीन ही है क्रमिक ज्ञान दर्शन में सर्वज्ञता कैसे ? अनन्तमत-खण्डनः मुक्त को भवनिमित्त का अभाव सर्वज्ञतारवभाव एवं निरावरणता दोनों की क्या १९७ मुक्ति और भवाधिकार परस्पर विरुद्ध जरुर ? ऋतुओं की तरह मुक्तो का पुनरागमन नहीं * सर्वज्ञता-स्वभाव का बीज ज्ञान की सहजता २९. बुद्धाणं-बोहयाणं * सर्वज्ञान कैसे संभवित ? १९९ 'ज्ञान अप्रत्यक्ष' मीमांसक मत ज्ञान की प्रकाश सीमा कहां तक ? बुद्ध का अर्थ : मीमांसक मत से विरुद्ध * संग्रह-व्यवहार को संमत सर्वज्ञता, २०० ज्ञान स्वप्रकाश क्यों ? परप्रकाश्य क्यों नहीं ? * सामान्य में सर्वविशेष अन्तर्भूत ज्ञान स्वसंवेध न होने पर इतरसंवेध नहीं हो सकता * ज्ञान-क्रिया दो मिल कर क्यों मोक्षमार्ग ? २०१ व्यक्ति के ज्ञान के बिना सामान्य ज्ञान नहीं १८५ निराकरणत्व रुप विशेष्य की सिद्धि २०२ अर्थप्रत्यक्षता रुप विशिष्ट का ज्ञान विशेषण ज्ञान * कर्म का सर्वथा नाश कैसे ? के बिना अशक्य ५८६ ज्ञानावरणादि प्रत्यक कर्म के बन्धहेतु * प्रदीपप्रकाश के दृष्टान्त से ज्ञान स्वतः प्रतीत है। * कर्मबन्ध के हेतुओं के प्रतिपक्ष उपाय अन्वय-व्यतिरेक * प्रतिपक्ष सेवन से पूर्वरोगनाश २०३ ज्ञान इन्द्रियवत् स्वरुपसत् ज्ञापक नहीं १८, सम्यग्दर्शनादि से कर्मक्षय होने में दृष्टान्त द्विविध अर्थप्रत्यक्षता-इन्द्रिय व ज्ञान की १८८ प्रकृष्टज्ञान से सभी ज्ञेय ३०. मुत्ताणं मोयगाणं सर्व ज्ञान बिना इष्टतत्त्वज्ञान असंभव २०४ जगत्कर्त्ता में मुक्तात्मा का लय यह मत और २६. वियट्टछउमाणं उसका निषेध १८५ आजीवकमतः परमात्मा में घातीकर्म छद्म * मुक्त कौन व कैसे ? १९० छा दो प्रकार के : सूत्र का अर्थ : २०४ जीव अनादि स्वतन्त्र वस्तु है, ब्रह्म से अलग हुई १. ज्ञानावरण २. भवाधिकार चीज नहीं * कर्मबन्धयोग्यता क्या ? २०५ मुक्ति में लय मानने पर ४ दोष : जगत्कर्तृत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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