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(ल०- धर्मफलपरिभोगे हेतुचतुष्टयम्-) एवं तत्फलपरिभोगयुक्ताः (१) सकलसौन्दर्येण निरुपमं रूपादि भगवतां; तथा (२) प्रातिहार्ययोगात् नान्येषामेतत्; एवं (३) उदारद्धय॑नुभूतेः; समग्रपुण्यसम्भारजेयं, तथा (४) तदाधिपत्यतो भावात्, न देवानां स्वातन्त्र्येण ।
(पं-) तदाधिपत्यतो भावान्न देवानां स्वातन्त्र्येणे'ति, भगवत्स्वेवाधिपतिषु इयमुदाद्धिरुत्पद्यते, न देवेषु कर्तृष्वपि।
___ इस प्रकार अश्व जैसे हीन प्राणी को भी बोध कराने हेतु भगवान ने गमन किया ऐसा शास्त्र से सुना जाता है; और भगवान विशिष्ट तथाभव्यत्व नामक स्वभाव वाले भी होते हैं। इन चार हेतुओं से सिद्ध होता है कि उन्होंने धर्म की प्राप्ति अत्यन्त ऊंची की है। उसके बिना ये सब कहां से हो सके? यह धर्मनायक होने में दूसरा कारण हुआ। अब,
(३) धर्मफल-परिभोग में चार हेतु :
अरहंत भगवान धर्मनायक होने में जो तीसरा कारण है कि वे धर्मफल के परिभोग वाले होते हैं, अर्थात् उनको अत्यद्भूत धर्मफल का अनुभव है, उसके चार हेतु हैं; समस्त सौन्दर्य, आठ प्रातिहार्य, समवसरणादि भव्य समृद्धि, और उसका आधिपत्य । (जगत में देखते हैं कि राजा वगैरह नायक का, अपने आधिपत्य में रहने वाली प्रजा एवं सैन्यादि परिवार की अपेक्षा, अनुपम सुखसमृद्धि भोगने पर अधिकार रहता है। ऐसी सुखसमृद्धि आदि देखने पर अनुमान होता है कि वह नायक है। तो अर्हत्प्रभु में उक्त चारों वैशिष्ट्य दिखाई देते हैं। सभी प्रकार के सौन्दर्य तो उन में है ही, अशोक वृक्षादि अष्ट प्रातिहार्य और रजत-कनक-रत्नमय तीन किलों का समवसरण यानी देशनाभूमि, चलते समय पैरस्थापनार्थ सुवर्णकमल, इत्यादि तो अनुपम !) और ये सभी, नेतृत्व के कारण उनको ही हैं; अन्य किसी को नहीं, बनाने वाले देवताओं को भी नहीं । ग्रन्थकार कहते हैं कि अर्हत्प्रभु जो धर्मफल के परिभोग वाले होते हैं यह इस प्रकार चार हेतुओं से :- .(१) सकल सौन्दर्य होने से, क्योंकि भगवान में अनुपम रूप, कान्ति, लावण्य, वगैरह होते हैं। तथा, ०(२) अष्ट प्रातिहार्य की विभूति होने से, -क्योंकि ये अशोकवृक्षादि प्रातिहार्य अन्य किसी को नहीं होते हैं । एवं, (३) समवसरणादि भव्य समृद्धि का अनुभव करने से, -क्योंकि वह समग्र पुण्य के राशिवश उत्पन्न होती है। तथा •(४) भगवान अधिपति होने के नाते ऐसी उदार समृद्धि होने से, क्यों कि इन उदार समृद्धि को रचने वाले देवताओं को भी खुद अपने लिए ऐसा समृद्धि का निर्माण नहीं है। इन चार हेतुओं से सिद्ध धर्मफल-परिभोग के कारण भगवान में धर्मनेतृत्व हैं। इसी प्रकार,
(४) धर्मविघात-रहितता में चार हेतु :
अर्हत्प्रभु धर्मनायक हैं इसका चौथा हेतु यह है कि वे धर्मविघात से रहित होते हैं । वस्तु के सचमुच अधिपति को उसमें विघात नहीं होना चाहिए। यहां विघात नहीं होता हैं यह इस प्रकार चार कारणों से :- .(१) पुण्य के अवन्ध्य (अवश्य सफल) बीज वाले होने से, - क्यों कि यह बीज भगवान स्वरूप अच्छे आश्रय को प्राप्त करने से भगवान के अच्छे आशय से पुष्ट हुआ है। इसी प्रकार, •(२) पुण्य भी सर्वोत्कृष्ट याने इसकी अपेक्षा कोई अधिक पुण्य न होने से, - क्यों कि कोई अधिक पुण्य हो तो इससे न्यून पुण्य का विघात होता है । इसी प्रकार, . (३) पापों का क्षय हो जाने से, क्यों कि पापमात्र जल कर नष्ट हुआ है। इसी प्रकार, ०(४) विघात कारण बिना तो नहीं हो सकता है और यहां कारण नष्ट हो गये हैं ईसलिए, क्योंकि विघात अगर कारण के अधीन न हो
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