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________________ (ल०-) नास्मिन्नान्तरेऽसति यथोदितगुणस्थानावाप्तिः, मार्गविषमतया चेतःस्खलनेन प्रतिबन्धोपपत्तेः । सानुबन्धक्षयोपशमतो यथोदितगुणास्थानावाप्तिः, अन्यथा तदयोगात् । (पं०) व्यतिरेकतो भावयन्नाह 'न' = नैव, 'अस्मिन्' = क्षयोपशमरूपे मार्गे, 'आन्तरे' अन्तरङ्गहेतौ, 'असति' अविद्यमाने, बहिरङ्गगुर्खादिसहकारिसद्भावेऽपि, 'यथोदितगुणस्थानावाप्तिः' सम्यग्दर्शनादिगुणलाभः । कुत इत्याह 'मार्गविषमतया' क्षयोपशमविसंस्थुलतया, 'चेतःस्खलनेन' मनोव्याघातेन, 'प्रतिबन्धोपपत्तेः' यथोदितगुणस्थानाप्तेविष्कम्भसम्भवात् । कुतः ? यतः 'सानुबन्धक्षयोपशमात्' = उत्तरोत्तरानुबन्धप्रधान (प्र०....प्रभूत)क्षयोपशमाद् 'गुणस्थानावाप्तिः' पूर्वोक्ता जायत इति । व्यतिरेकमाह 'अन्यथा' सानुबन्धक्षयोपशमाभावे, 'तदयोगात्' यथोदितगुणस्थानावाप्तेरभावात् । इस प्रकार चित्त को तत्त्वरुचि के भीतर प्रवेश करने के बाद इष्ट फल की प्राप्ति के हेतु आगे बढने में मिथ्यात्वमोहनीयादि कर्मों का ऐसा क्षयोपशम उपयुक्त होता है, जो उत्तरोत्तर शरणआदि द्वारा सम्यग्दर्शन प्रमुख विशिष्ट गुणों के लाभ कराने में समर्थ हो । चित्त की अवक्र प्रवृत्ति यही है कि वैसा क्षयोपशम हो, जिससे उत्तरोत्तर विशिष्ट गुणलाभ होता रहें; और यह है मार्ग।। ___ फलितार्थ कहते हैं कि मार्ग कहो, विशिष्ट क्षयोपशम कहो, या चित्त का अवक्र गमन कहो, दरअसल वह (१) हेतु, (२) स्वरूप, और (३) फल की अपेक्षा से शुद्ध उपशम-सुख स्वरूप सुखासिका है। वह हेतुशुद्ध यानी पूर्वोक्त धृति और श्रद्धा इन दो कारणों की अपेक्षा से निर्दोष उपशम सुख रूप होना चाहिए: तात्पर्य, वह मार्ग निर्भय आत्म-स्वास्थ्य और तत्त्वरुचि मे से प्रगट होना जरुरी है। एवं वह स्वरूपशुद्ध अर्थात् अपने स्वरूप की अपेक्षा से शुद्ध होना चाहिए; तात्पर्य, उपर कहे मुताबिक उपशम सुख शुद्ध होना जरुरी है; शुद्ध याने आभासरूप, कृत्रिम अथवा दम्भपूर्ण नहीं, किन्तु राग-द्वेष-मोहादिका वास्तविक उपशमन । वास्तविक उपशम होगा तब उत्तरोत्तर गुणविकास होता रहेगा। अत: उपर बताया वह मार्ग यानी उपशमसुख फलशुद्ध होना चाहिए; फलशुद्ध उसे कहते हैं कि जो तत्त्वरुचि के अनन्तर होने वाले तत्त्वजिज्ञासादि फल की अपेक्षा से निर्दोष हो। अर्थात् जिससे समुचित तत्त्वजिज्ञासादि अवश्य उत्पन्न होते हैं। यह 'मार्ग' का स्वरूप निश्चित हुआ। अब निषेधमुख से विचार करते कहते हैं कि यह मिथ्यात्वादि-कर्मो के क्षयोपशम स्वरूप मार्ग, वह विशिष्ट गुणस्थान यानी सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति में अन्तरङ्ग हेतु हैं, और सद्गुरु आदि अन्य सामग्री बहिरङ्ग हेतु है। वहां अगर अन्तरङ्ग हेतुभूत मार्ग प्राप्त नहीं है तो बाह्य गुरुयोगादि सामग्री मौजूद होनेपर भी सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि चित्त यदि मिथ्यात्वादि के क्षयोपशम स्वरूप मार्ग सिद्ध करने में विषम है अर्थात् उसके प्रति घबड़ाहट, पराङ्मुखता आदिका अनुभव करता है, तो सहज है कि चित्त मिथ्यात्वादि अशुभ कर्मो के उदय में परवश बनता है, और इससे चित्त को सम्यग्दर्शन की भूमिका रूप शुभ भाव में जाने के प्रति आघात पहुंचता है। फलतः पूर्वोक्त गुणस्थान की प्राप्ति की रुकावट होना संभवित है। प्र०-अभय और चक्षु, यानि धृति और तत्त्वरुचि प्राप्त हुई, अब यदि मार्ग याने विशिष्ट गुणलाभ तक पहुंचे ऐसा क्षयोपशम नहीं भी मिला, तो क्या न्यूनता है? उ०- न्यूनता की क्या बात, इस में विशिष्टगुणलाभ होगा ही नहीं । क्यों कि सानुबन्ध यानी उत्तरोत्तर प्रवाह की मुख्यता वाले क्षयोपशम के द्वारा ही पूर्वोक्त गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । दर्शनमोहनीयादि कर्मो का कुछ क्षय एक बार होने से जीव विशिष्ट गुणस्थान तक पहुंच जाता है ऐसा नहीं है, १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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