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________________ (ल०-) सत्यां चास्यां भवत्येतन्नियोगतः कल्याणचक्षुषीव सद्रूपदर्शनम् । न पत्र प्रतिबन्धो नियमेन ऋते कालादिति नेपुणसमयविदः । अयं चाप्रतिबन्ध एव, तथातद्भवनोपयोगित्वात्, तमन्तरेण तत्सिद्ध्यसिद्धेः, विशिष्टोपादानहेतोरेव तथापरिणतिस्वभावत्वात् । (पं०-) भवतु भगवत्प्रसादसाध्येयं, परं स्वासाध्यं प्रति न नियतो हेतुभावोऽस्याः स्यादित्याह 'सत्यां च' = विद्यमानायां च, 'अस्याम्' = उक्तरूपश्रद्धायां, भवति' = जायते, 'एतत्' = तत्त्वदर्शनं, 'नियोगतः' = अवश्यंभावेन । निदर्शनमाह 'कल्याणचक्षुषीव' = निरूपहतायमिव दृष्टी, सद्रूपदर्शन', सतः = सद्भूतस्य, रूपस्य, दर्शनम् अवलोकनं, न तु काचकामलाद्युपहत इव चक्षुषि अन्यथेति । एतदेव भावयति न हि' = नैव, 'अत्र' मार्गानुसारिश्रद्धासाध्यदर्शने, 'प्रतिबन्धो' = विष्कम्भो, 'नियमेन' = अवश्यंभावेन, कुतश्चिदिति गम्यते। किं सर्वथा ? नेत्याह, 'ऋते' = विना, 'कालात्,' काल एव पुत्र प्रतिबन्धक इति भावः । 'इति' एवं, 'निपुणसमयविदो' निश्चयनयव्यवहारिणो ब्रुवते । ननु कालेऽपि प्रतिबन्धके कथमुच्यते 'न पत्र प्रतिबन्धो नियमेने'त्याह 'अयं च' कालप्रतिबन्धः (च) 'अप्रतिबंध एव' । कुत इत्याह 'तथेति' दर्शनरूपतया तस्याः = श्रद्धायाः, भवनं = परिणमनं, तद्भवनं, तत्र 'उपयोगित्वात्' = व्यापारवत्त्वात् कालस्य । व्यतिरेकमाह 'तम्' = कालम् 'अन्तरेण' = विना, 'तत्सिद्ध्यसिद्धेः तस्य दर्शनस्य स्वभावलाभानिष्प्तेः । कुत इत्याह 'विशिष्टस्य विचित्रसहकारिकारणाहितस्वभावातिशयस्य, उपादानहेतोरेव' परिणामिकारणस्यैव, तथापरिणतिस्वभावत्वात्' तथापरिणतिः = कार्याभिमुखपरिणतिः, सैव स्वभावो अस्य कालस्य तत्तथा, तद्भावस्तत्त्वं, तस्माद्व्यपर्यायत्वात्कालस्य । (ल०-) तदेषाऽवन्ध्यबीजभूता धर्मकल्पद्रुमस्येति परिभावनीयम् । इयं चेह चक्षुरिन्द्रियं चोक्तवद् भगवद्भय इति चक्षुर्ददातीति चक्षुर्दाः ॥ १६ ॥ (पं०-) 'उक्तवदिति = प्राक्सूत्राभिहिताभयधर्मवत् । . प्र०- जब एक काल भी प्रतिबन्धक है तब यह कैसे कह सकते हैं कि यहां निश्चयरुप से कोइ रुकावट नहीं? उ० - समाधान यह है कि यहां काल से जो रुकावट होती है वह रुकावट ही नहीं है। इसका कारण यह है कि यहां श्रद्धा यानी रुचि स्वरूप बीज से जो दर्शन पैदा होता है, इस में रुचि ही दर्शन रूप में परिणत होती है, अर्थात् रुचि आगे जा कर दर्शन का आकार ग्रहण करती है, जैसे कि और बीज फल रूप में परिणत होते हैं। अब इस परिणति होने में काल उपयोगी है, काल माध्यम है; क्यों कि बिना काल वह सिद्ध नहीं हो सकती, अर्थात् दर्शन अपने स्वरूप का लाभ पा सकता नहीं है। इसका भी हेतु यह है कि विशिष्ट उपादान-कारण काल के द्वारा ही कार्य रूप में परिणत होने का स्वभाव वाला होता है। कारण दो प्रकार के होते हैं; १. निमित्त यानी सहकारी कारण, जैसे कि घड़ा बनाने में चक्र, कुम्भार वगैरह; २. उपादान यानी परिणामी कारण, उदाहरणार्थ घडे के प्रति मिट्टी; मिट्टी ही घडे का परिणाम (आकार) पाती है; तो वह परिणामी कारण हुई । प्रस्तुत में रुचि यह परिणामी कारण है और उस में अपना स्वभाव जब विविध सहकारी कारणों के संनिधान द्वारा उत्तेजित होता है, तब वह कार्यभूत दर्शन के रूप में परिणत होने के स्वभाववाली होती है। अब इन सहकारी कारणों के अन्तर्गत काल भी है; और वह कारण इस रीति से है, कि अमुक काल पसार न हो तब तक रुचि दर्शन रूप में परिणत नहीं होती है; १३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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