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________________ (ल०-अत्र चक्षुः किम् ?:-) तदन चक्षुः विशिष्टमेवात्मधर्मरूपं तत्त्वावबोधनिबन्धनश्रद्धास्वभावं गृह्यते; श्रद्धाविहीनस्याचक्षुष्मत इव रूपमिव तत्त्वदर्शनायोगाद् । न चेयं मार्गानुसारिणी सुखमवाप्यते । होने से वह वंदनीय-पूजनीय मानी गई है। अस्तु । द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्ति और उपकरण ऐसे दो प्रकार की होती है; और भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोग, इन दो प्रकार की है। निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय :- वहां इन्द्रिय के आकार को निर्वृत्ति कहते हैं। वह बाह्य आकार और आभ्यन्तर आकार, इन दो प्रकार की होती है । बाह्य आकार अनेक प्रकार के होते हैं, दृष्टान्त के लिए मनुष्य के श्रोत्र का आकार राष्कुली समान है एवं चक्षुका आकार गोले के समान हैं... इत्यादि । लेकिन पशु, पंखी, कीट आदि के इन्द्रियों के बाह्य आकार भिन्न भिन्न तरह के होते हैं। आभ्यन्तर आकार पांच प्रकार के होते हैं :- श्रोत्र इन्द्रिय का आन्तरिक आकार कदम्बपुष्प के समान होता है; चक्षु का मसूर के धान्य के समान होता है; घ्राणेन्द्रिय का अतिमुक्तक पुष्प या चन्द्रिका के समान, रसनेन्द्रिय का अस्त्रे के समान, एवं स्पर्शनेन्द्रिय के तो अनेक प्रकार के आकार होते हैं। उपकरण द्रव्येन्द्रिय:-'उपकरण' अर्थात् उपकार करने वाली, यानी विषय के ग्रहण में समर्थ । जिस प्रकार वस्तु को काटने में खड्ग काम आता है, फिर भी उसकी धार ही विशेष समर्थ होती है, इस प्रकार बाह्य आकार में रहनेवाली 'उपकरण' नामकी आभ्यन्तर पौद्गलिक रचना ही अपने विषय को पकड़ने में शक्तिमान होती है, जिसका उपघात होने पर बाह्य निर्वृत्ति (आकार) रहने पर भी विषयग्रहण नहीं हो सकता। देखते है कि चक्षु ज्यों के त्यों रहने पर भी देखने की ताकत कम होती है, वह उपकरण का उपघात होने से होती है। लब्धि भावेन्द्रियः- ज्ञान आत्मा का स्वभाव होने से और वह आवरणों से आवृत्त रहने के कारण, जब विषय का ज्ञान करना है, तब उसके लिये ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम या क्षय आवश्यक होता है। तो इन्द्रियों से जो ज्ञान किया जाता है और जो मतिज्ञान कहलाता है, उसमें क्षयोपशम भी जरुरी है। यही क्षयोपशम लब्धि-इन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय की प्रवृत्ति इसीकी प्रेरक होती है। उपयोग - भावेन्द्रिय:- अपने अपने विषय में जो ज्ञान-प्रवृत्ति होती है वह है उपयोग । लब्धि और उपयोगमें इतना अन्तर है कि लब्धि आत्मा की ज्ञान-शक्तिरूप है, तो उपयोग ज्ञान का स्फुरण रूप है। यहां प्रश्न होगा, उपयोग तो इन्द्रिय का कार्य हुआ, इन्द्रिय कैसे ? प्र०- उपयोग तो खुद कार्यभूत ज्ञान रूप हुआ, तब इन्द्रिय कैसे? इन्द्रिय तो ज्ञान का साधन कही जाती है। उ०- कार्य है विषय की ज्ञप्ति, विषय का बोध; और उसके प्रति ज्ञानका स्फुरण रूप उपयोग साधन है, इसलिए वह इन्द्रिय है । अंतरात्मा में लब्धि यानी ज्ञानशक्ति कितनी भी हो, लेकिन जब तक उपयोग यानी ज्ञानस्फुरण नहीं होता है तब तक वस्तुबोध नहीं होता है; अतः उपयोग भी कार्यभूत बोध का एक अति आवश्यक साधन है; अत: वह भी इन्द्रिय है। चक्षु = जीवादितत्त्वप्रतीति में हेतुभूत धर्मप्रशंसादि : इस प्रकार सामान्य रूप से यहां चक्षु एक इन्द्रिय है, किन्तु भगवान 'चक्षु' दाता है यहां चक्षु सामान्य नहीं, किन्तु विशिष्ट आत्मधर्म स्वरूप, अर्थात् जीव का स्वभावभूत विशिष्ट उपयोग समझना है। वह उपयोगविशेष क्या है ? जीवादि तत्त्वों की प्रतीति होने में कारणभूत जो श्रद्धा याने रुचि है, वही उपयोग विशेष है। यह १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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