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________________ (ल०-'हित' शब्दार्थ :-) तदेवंविधाय लोकाय हिताः । यथावस्थितदर्शनपूर्वकं सम्यक्प्ररुपणाचेष्टया तदायत्यबाधनेनेति च । इह यो यं याथात्म्येन पश्यति, तदनुरूपं च चेष्टते भाव्यपायपरिहारसारं, स तस्मै तत्त्वतो हित इति हितार्थः । (पं०) यथावस्थितेत्यादि, यथावस्थितं' = अविपरीतं, 'दर्शन' = वस्तुबोधः, 'पूर्व = कारणं, यत्र तद् यथावस्थितदर्शनपूर्वकं, क्रियाविशेषणमेतत् । 'सम्यक्प्ररुपणाचेष्टया = सम्यक्प्रज्ञापनाव्यापारेण, 'तदायत्यबाधनेन' 'तस्य' = सम्यग्दर्शनपूर्वकं प्रज्ञापितस्य, 'आयतौ' आगामिनि काले, 'अबाधनेन' = अपीडनेन, 'इतिच' = अनेन च हेतुना, हिता इति योगः । एतदेवभावयन्नाह 'इह' = जगति, 'यः' = कर्ता, यं, = कर्मतारूपं, 'याथात्म्येन' = स्वरूपानतिक्रमेण, 'पश्यति' = अवलोकते, 'तदनुरूपंच' = दर्शनानुरूपंच, 'चेष्टते' = व्यवहरति, 'भाव्यपायपरिहारसारम्' अनुरूपचेष्टनेऽपि भाविनमपायं' परिहरनित्यर्थः; न पुनः सत्यभाषिलौकिककौशिकमुनिवत् भाव्यपायहेतुः । 'स' = एवंरूप: 'तस्मै' = यथात्म (प्रत्यन्तरे....यथात्म्य)) दर्शनादिविषयीकृताय, “हितः' अनुग्रहहेतुः, 'इति' = एवं, हितार्थो' हितशब्दार्थः । प्रत्येकवनस्पति-कायिक सिवाय पांचो स्थावरकाय जीव, सूक्ष्म और बादर (स्थूल) इस प्रकार, दो प्रकार के होते हैं। इन पांचो सूक्ष्म स्थावरकाय जीवों से सारा विश्व हमेशा भरा हुआ रहता है। सूक्ष्मसाधारण वनस्पतिकायपन में जो जीव अनादिकाल से जन्म-मृत्यु पाते हैं और अद्यपि अन्य किसी जीव-विभाग में नहीं गए हैं, उन्हें असांव्यवहारिक अर्थात् अव्यवहार राशि के जीव कहा जाता है। परन्तु जो जीव इससे छूट कर पृथ्वीकायिकादि अवस्था में आये, - वहां तक की वे फिर सामान्य वनस्पतिकाय में गए भी हों, फिर भी एक बार दूसरे व्यवहार में आ गए होने से, उन्हें व्यवहार राशि के ही जीव कहा जाता है। ___अरिहंत परमात्मा समस्त सांव्यवहारिक, असांव्यवहारिक और मुक्त जीवों के अर्थात् जीव मात्र के हितभूत हैं, मात्र जीवों के लिए ही नहीं परन्तु समस्त जीव और अजीव याने पांचों अस्तिकाय स्वरूप लोक के हितकारी हैं। अस्तिकायों का वर्णन पहले किया गया है। इनमें सत् वस्तु मात्र अर्थात् सारा विश्व आ जाता है। काल अस्तिकाय या स्वतंत्र द्रव्य नहीं : प्रश्न :- पहले तो जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, पुद्गल आकाश और काल, इस प्रकार छः द्रव्य बताये थे; यहाँ पांच द्रव्य क्यों लिए गए ? क्या काल अस्तिकाय नहीं है? क्या वह विश्व में नहीं है? उ०- काल अस्तिकाय नहीं है। इसलिए कि अस्तिकाय है प्रदशों का समूह; ('अस्ति' = प्रदेश, सूक्ष्म अंश; और उनका 'काय' = समूह ।) काल में सूक्ष्म में सूक्ष्म अंश समय हैं। परंतु जब देखा जाय तब वर्तमान एक ही समय उपस्थित होता हैं, समयों का समूह नहीं । क्यों कि वर्तमान समय के सिवाय के पहले के समय नष्ट हो चुके हैं और भावी समय अभी उत्पन्न ही नहीं हुए हैं, फिर वे कैसे समुदाय रूप में हो सके? इसी लिए कहा गया है कि विश्व में कभी भी लभ्य ऐसा काल तो समय स्वरूप ही होता है, नहीं कि समयों का समूह अर्थात् अस्तिकाय स्वरूप। जब कि जीव, धर्म, इत्यादि तो अस्तिकाय रूप में मिलते हैं। फिर भी नय विशेष से अर्थात् अमुक दृष्टि से काल स्वतंत्र भी है, अथवा वस्तुका पर्याय स्वरूप भी हैं, जिस की वजह जीवादि पदार्थों में छोटी उम्र-बडी उम्र, नयापन - पुरानापन, समय, क्षण, प्रहर इत्यादि वर्तनाएँ हुआ करती हैं। इस पंचास्तिकाय लोक में अलोक का भी समावेश हो जाता है। ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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