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________________ ( ल० - विना योगक्षेमौ न नाथता ) न तदुभयत्यागाद् आश्रयणीयोऽपि, परमार्थेन तल्लक्षणायोगात् । इत्थमपि तदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्, महत्त्वमात्रस्येहाप्रयोजकत्वात्, विशिष्टोपकारकृत एव तत्त्वतो नाथत्वात् । = = (पं०)-योगक्षेमयोरन्यतरकृत्, सर्वथा तदकर्त्ता वा, नाथः स्यादित्याशङ्कानिरासायाह 'न' नैव 'तदुभयत्यागात्' तदुभयं योगक्षेमोभयं सर्वथा तत्परिहाराद्, अनयोरेवान्यतराश्रयणाद्वा, 'आश्रयणीयोऽपि' = ग्राह्यपि, अर्थित्ववशान्नाथ; किं पुनरनाश्रयणीय इति 'अपि' शब्दार्थः । कुत इत्याह 'परमार्थेन' = निश्चयप्रवृत्त्या, तल्लक्षणायोगात् = नाथलक्षणायोगात् । उभयकरत्वमेव तल्लक्षणमित्युक्तमेव । विपक्षे बाधकमाह 'इत्थमपि ' तल्लक्षणायोगेऽपि, तल्लक्षणयोगे तु प्रसज्यते एवेति 'अपि' शब्दार्थ: । 'अतिप्रसङ्गाद्' = अकिञ्चित्करस्य कुड्यादेरपि नाथत्वप्राप्तेः । तर्हि गुणैश्वर्यादिना महानेव नाथ इति नातिप्रसङ्गः, इत्याशङ्क्या 'महत्त्वमात्रस्य = योगक्षेमरहितस्य महत्त्वस्यैव केवलस्य 'इह' - नाथत्वे 'अप्रयोजकत्वाद्' अहेतुकत्वात्, कुत इत्याह 'विशिष्टोपकारकृत एव' योगक्षेमलक्षणोपकारकृत एव नान्यस्य, (प्र०... नान्यथा), 'तत्त्वतो' = निश्चयेन, 'नाथत्वात्' = नाथभावात् । प्र० - भगवान में एसा सामर्थ्य न माने तो क्या हानि है ? उ०- हानि यह है कि तब तो भगवान में नाथता नहीं उत्पन्न हो सकेगी। भगवान विशिष्ट भव्य जीवों को बीजाधान कराना वगैरह द्वारा उन्हें अन्य भव्यों से पृथक् करानेवाले अगर न हो तो उनमें नाथपन कैसा ? अर्थात् ऐसे विभाग के विषयभूत उन भव्य जीवों के प्रति भगवान में नाथपन नहीं घट सकता । कारण, सच्चे नाथ वही है जो योग-क्षेम करनेवाले होते हैं, ऐसी प्राज्ञ पुरुषों की प्रसिद्धि है । 'योग' का अर्थ नयी प्राप्ति होता है, और 'क्षेम' का अर्थ प्राप्त का रक्षण होता है। बीज-वपनादि जिन्हें प्राप्त नहीं है उन्हें प्राप्त कराना, यह योग है; और जिन्हें प्राप्त है उनके उसका रक्षण करना यह क्षेम है । विद्वज्जनों द्वारा, योग ओर क्षेम करनेवाला ही नाथ कहलाता है । योग-क्षेम से ही नाथता : प्र० - जो योग, क्षेम, दोनों में से एक ही करता हो या सर्वथा एक भी न करता हो तो क्या वह नाथ नहीं बन सकता है ? उ०- नहीं, योग क्षेम दोनों के त्याग से या एक ही करने से वह, चाहे स्वार्थ वश आश्रय किया भी जाता हो तो भी, नाथ नहीं बन सकता है; आश्रय न किये जाने वाले की तो बात ही क्या ? नाथ न बन सकने का कारण यह है कि परमार्थ से यानी निश्चय नय से, अर्थात् व्यवहार मात्र से नहि किन्तु 'नाथ' पदार्थ की दृष्टि से, - 'नाथ' का लक्षण उसमें नहीं घटता है। योग और क्षेम दोनों का कर्तृत्व, यह नाथ का लक्षण कह आये हैं । प्र० - लक्षण न घटे फीर भी नाथ कहें तो क्या हानि है । उ०- लक्षण न घटने पर भी नाथ कहेंगे तो इस प्रकार अतिप्रसङ्ग आयेगा, भींत आदि वस्तु जो कुछ नहीं करती है उस में भी नाथता प्राप्त होगी! लक्षण के अनुसार चलने पर तो भींत वगैरह नाथ नहीं कही जा सकती, किन्तु विना लक्षण चलने पर वह नाथ क्यों न कही जाए ? प्र० - इस अतिप्रसङ्ग को निवारणार्थ तो ऐसा क्यों न कहे कि नाथ वही है जो गुणसमृद्धि से महान है ? भींत ऐसी नहीं होने से नाथ नहीं कही जा सकती । उ०- नाथता के प्रति योग-क्षेम रहित केवल महत्त्व प्रयोजक नहीं हो सकता है। गुणसमृद्धि आदि द्वारा १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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