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( ल०—स्तववैयर्थ्यम्:- ) अन्यथा न वस्तुनिबन्धना शब्दप्रवृत्तिरिति स्तववैयर्थ्यमेव । ततश्चान्धकारनृत्तानुकारी प्रयास इति । पुरुषवरगन्धहस्तिन इति ।
(तृतीयसम्पदुपसंहारः — )
एवं पुरुषोत्तमसिंहपुण्डरीकगन्धहस्तिधर्म्मातिशययोगत एव एकान्तेनादिमध्यावसानेषु स्तोतव्यसम्पत्सिद्धिः, इति स्तोतव्यसम्पद् एवासाधारणरूपा हेतुसम्पदिति ॥ ३ ॥
प्र०-तो क्या, जहां किसीने असत्य कथन कहा वहां वस्तु वैसे जूठे स्वरूप में परिणत हुई होगी न ? उ०- नहीं कभी झूठे स्वरूप में वस्तु परिणत नहीं होती है, शब्द होते हैं । इसीलिए तो वैसे झूठे स्वरूप में परिणत शब्द असत्य कहे जाते हैं; और वैसा असत्य कथन वस्तु की परिणति के नहीं किन्तु मिथ्यात्वादि की आत्मपरिणति के मुताबिक उत्पन्न होता है। जब कि सत्य कथन में यह वैशिष्ट्य हैं कि वह कथनीय वस्तु की वैसी . परिणति की अपेक्षा कर के उत्पन्न होता है । वास्ते तो वह यथार्थ कथन कहा जाता है। यथार्थ कथन माने पदार्थ की जैसी परिणति उसके अनुरुप पैदा होनेवाली परिणति वाला कथन । तब यह सिद्ध हुआ कि जब हीनाधिक गुणों के कथन में पूर्वानुपूर्वी आदि क्रम हो सकता है, तब कथनीय उन गुणों में भी पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी, आदि क्रम नहीं है वैसा नहीं। तो वादी जो आक्षेप करता है कि वे क्रमशून्य होने से असत् है, - यह बात नहीं है। पूर्व कही गई रीति से सचमुच क्रमरहितता ही असिद्ध है। क्योंकि कथन क्रम द्वारा कथनीय के क्रम का प्रामाणिक अनुमान होता है; अर्थात् खुद वस्तु भी पूर्वानुपूर्वी स्वरुप क्रम, पश्चानुपूर्वी स्वरुप उत्क्रम, इत्यादि रुप से प्रतिपाद्य स्वभाववाली सिद्ध होती है। अतः कह सकते हैं कि पहले अधिक गुण की उपमा, फिर हीन गुण की उपमा के योग्य स्वभावों का उत्क्रम भी है, तो सर्वथा क्रमशून्यता नहीं है ।
स्याद्वादशैली से स्वभावतः भी क्रम-अक्रम हैं
इस प्रकार कथनीय की वैसी वैसी परिणति पर निर्भर है तथाविध कथन; और उसके द्वारा गुणों का क्रम - उत्क्रम आदि दिखलाया; अब वे स्वभाव से भी है यह दिखलाते हैं। इसके लिए कहते हैं कि स्याद्वादी जैन लोग तो मानते हैं कि जीव आदि सगुण वस्तुमें हीनाधिक गुण जो अपना विशिष्ट स्वरूप पाते हैं, वह सामान्यतः क्रम और अक्रम दोनों से। स्याद्वाद यानी अनेकांतवाद का सिद्धान्त यहीं बताता है कि गुणों में क्रम एकान्त रूप से नहीं किन्तु कथञ्चित् रूप से है, अर्थात् अमुक अपेक्षा से क्रम है भी और दूसरी अपेक्षा से क्रम नहीं भी है। अत: जैसे वस्तु मात्र में स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र इत्यादि रूप से सत्त्व, और परद्रव्य-क्षेत्रादि रूप से असत्त्व, दोनों होते हैं, इसी प्रकार क्रम और अक्रम दोनों सिद्ध होते हैं। स्याद्वादी दर्शन वस्तु मात्र को अनेकधर्मात्मक मानता है- तब गुणों में क्रमबद्ध स्वरूप और अक्रमबद्ध स्वरूप दोनों की मान्यता हैं । अतः अक्रमवाला असत् होता हैं वह सिद्धान्त प्रतिपादक शब्द की तरह प्रतिपाद्य वस्तु में भी नहीं चलेगा। अर्थात् वादी जो कहता है कि 'पुण्डरीक की उपमा द्वारा वर्णित अत्यन्त अधिकता वाले कैवल्यादि गुण की अपेक्षा गन्धहस्ती की उपमा द्वारा वर्णित गुण हीनकक्ष होने से इसका यदि बाद में वर्णन किया जाय तो अक्रम होने के कारण यह असत् सिद्ध होगा,' यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्यों कि जब स्याद्वादशैली से गुणों में अक्रम भी सिद्ध ही है, तब उनमें असद्रूपता की आपत्ति ही कहां से? वह तो तब होती कि जब गुणों में अक्रम वस्तुगत्या न हो सकता ।
स्तुति निरर्थक नहीं है
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