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________________ (ल.)-न चैवमुपमा मृषा, तद्द्वारेण तत्त्वतः तदसाधारणगुणाभिधानात् । विनेयविशेषानुग्रहार्थमेतत् । इत्थमेव केषाञ्चिदुक्तगुणप्रतिपत्तिदर्शनात् । चित्रो हि सत्त्वानां क्षयोपशमः; ततः कस्यचित् कथंचिदाशयशुद्धिभावात् ।। ___ (पं०)-'न चैवम्' इत्यादि, - 'न च' =नैव, 'एवम्' =उक्तप्रकारेण, 'उपमा' सिंहसादृश्यलक्षणा, 'मृषा' =अलीका । कुत इत्याह 'तद्वारेण' =सिंहोपमाद्वारेण, 'तत्त्वतः' =परमार्थमाश्रित्य, न शाब्दव्यवहारतः, 'तदसाधारणगुणाभिधानात्'-'तेषां' =भगवताम्, 'असाधारणाः' =सिंहादौ क्वचिदन्यत्र अवृत्ता (प्रत्यन्तरे 'अप्रवृत्ता') ये 'गुणाः' =शौर्यादयस्तेषाम्, 'अभिधानात्' =प्रत्यायनात् । ननु तदसाधारणगुणाभिधायिन्युपमान्तरे (प्रत्यन्तरे 'उपायान्तरे) सत्यपि किमर्थमित्थमुपन्यासः कृतः ? इत्याह 'विनेयविशेषानुग्रहार्थमेतत्' =विनेयविशेषाननुग्रहीतुमिदं सूत्रमुपन्यस्तम् । एतदेव भावयति 'इत्थमेव' =प्रकृतोपमोपन्यासेनैव, केषाञ्चिद्' =विनेयविशेषाणाम्, 'उक्तगुणप्रतिपत्तिदर्शनात्,'-'उक्तगुणाः' =असाधारणाः शौर्यादयः, तेषां ('प्रतिपत्तिदर्शनात्' =) प्रतीतिदर्शनात् । कुत एतदेवमित्याह 'चित्रो' =नैकरूपो, 'हि' =यस्मात्, 'सत्त्वानां' =प्राणिनां, 'क्षयोपशमः =ज्ञानावरणादिकर्मणां क्षयविशेषलक्षणः । ततः' =क्षयोपशमवैचित्र्यात्, 'कस्यचिद्' =विनेयस्य, कथञ्चित्' =प्रकृतोपमोपन्यासादिना प्रकारेण, आशयशुद्धिभावात्' =चित्तप्रसादभावात्। नैवमुपमा मृषा इति योगः। शूरता, क्रूरता, असहनता, वीर्य, वीरता, अवज्ञा, निर्भीकता, निश्चिन्तता, खेदरहित्य, निष्प्रकम्पता, इत्यादि-गुणों के समूह हैं। भगवान में सिंहवत् शौर्य आदि गुणगण किस प्रकार ? : जिस प्रकार सिंह मदोन्मत्त हस्तियों के प्रति शूर होकर उनका उच्छेद करने में क्रूर होता है, दूसरे सिंहको नहीं सह सकने से उसे प्रवेश नहीं करने देता, शिकारी पुरुषों के प्रति निःशस्त्र हो कर वीरता रखता है, पीछेहठ न कर सामने जाता है, क्षुद्र जन्तुओं की तो अवज्ञा ही करता है, भयङ्कर उपद्रवों में भी निर्भीक रहता हैं, अपने खानपान आदि के विषयमें निश्चिन्त रहता है, वनभ्रमणादि परिश्रम से उब जाता नहीं है, और अपनी उद्देश-सिद्धि में निष्कम्प रहता है; __इस प्रकार, श्री अरिहंत परमात्मा ज्ञानावरण आदि कर्म स्वरूप आंतर शत्रुओं के प्रति शूर हो कर उनके सर्वनाशमें क्रूर होते हैं, लेश मात्र भी कोमल या मृदु नहीं बनते हैं। वे क्रोध मान-माया-लोभ कषायों को न सह कर उनको अपनी आत्मामें प्रवेश नहीं करने देते हैं, और अतुल पराक्रम से राग-द्वेष-मोह आदिका नाश करते हैं। बारह प्रकार के तप के अनुष्ठानों में वे परिचारक, आराम आदि से रहित हो उनमें जानबुझ प्रविष्ट रहने में सदा वीर बने रहते हैं। वैसे, वे क्षुधा-तृषा, सर्दी-गर्मी, आक्रोश-प्रहार इत्यादि परीसहों अर्थात् क्षुद्र उपद्रवों की पीडाओं की अवगणना करते हैं, लापरवाही रखते हुए उन्हें सहर्ष सह लेते हैं, और मरणान्त कष्ट-उपद्रव जैसे घोर उपसर्गो में भी निर्भीक बन अपनी मोक्षमार्ग की साधनामें अविचलित रहते हैं। अपनी इन्द्रियों की तृप्ति करने की कोई चिन्ता अभिलाषा उन्हें होती नहीं है; कठिन संयममार्ग पर सदा चलते रहने के परिश्रम में कोई थकावट, कोई नीरसता उन्हें होती नहीं है। एवं सदा सम्यग् धर्मध्यानमें, एकाग्र तत्त्वचिंतन में उन्हें कोई कंप, कोई स्खलनाचंचलता नहीं और निरंतर स्थिरता निश्चलता रहती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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