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प्रस्तावना
किया। खलजनोंके निन्दार्थक वचनोंको उपेक्षा करके क्षुधा एवं तृषाके विलासको दूर कर निर्मलतर हृदयसे भव्यजनोंके घरोंमें गमन करनेकी वत्तिमें संख्या निश्चित कर वृत्ति-परिसंख्यान तप प्रारम्भ किया । इन्द्रियोंको जीतनेवाले तथा संक्षोभका हरण करनेवाले रसोंका त्याग किया। असमाधि-वृत्तिको मिटाने के लिए निर्जन्तुक भूमिमें शयनासन किया। मनको वशमें कर शोकरहित होकर परिग्रहका त्याग कर त्रिकालोंमें कायोत्सर्ग मुद्रा धारण की ( ८।१४)।
इसी प्रकार कविने षद्रव्यों एवं सात तत्त्वों आदिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। एक प्रकारसे यह ग्रन्थ इन विषयोंका ज्ञान-कोश भी कहा जा सकता है क्योंकि दर्शन और आचारको इसमें प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है (१०॥३-४०)। यह अवश्य है कि कविके इन वर्णनोंमें कोई विशेष नवीनता नहीं है । इन विषयवर्णनोंका मूल आधार तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, गोमद्रासार ( कर्मकाण्ड और जीवकाण्ड ) तथा तत्त्वार्थराजवात्तिक आदि हैं। उक्त सभी विषयोंका विश्लेषण वहाँ स्पष्ट रूपसे प्राप्य है ही, अतः उनका निरूपण यहाँपर पिष्टपेषित ही होगा।
२२. भूगोल श्रमण-परम्परामें भूगोलका अर्थ बड़ा विशाल है। श्रमण-कवियोंके दृष्टिकोणसे इसमें मध्यलोकके साथ-साथ पाताल और ऊर्ध्व लोक भी सम्मिलित हैं। पाताल-लोकमें ७ नरक हैं तथा ऊर्ध्व-लोकमें स्वर्ग एवं मोक्ष-स्थल स्थित हैं, जिनका वर्णन विस्तार-पर्वक किया गया है (१०११३-३८)।
कविने मध्य-लोकका भी वर्णन विस्तार-पूर्वक किया है। उसे निम्न चार भागोंमें विभक्त किया जा सकता है(१) प्राकृतिक भूगोल, (२) मानवीय भूगोल, (३) आर्थिक भूगोल और (४) राजनैतिक भूगोल ।
(१) प्राकृतिक भूगोल प्राकृतिक भूगोलमें सृष्टिको वे वस्तुएँ समाहित रहती हैं, जिनके निर्माणमें मनुष्यके पुरुषार्थका किसी भी प्रकारका सम्बन्ध न हो। इस प्रकारके भूगोलके अन्तर्गत पहाड़, समुद्र, जंगल, द्वीप, नदी आदि सभी आते हैं। इन पहाड़ोंमें-से कविने सुमेरु पर्वत (१।३।५), उदयाचल (१।५।४), हिमवन्त (२१७१४), वराहगिरि (२।७।६), कैलास (२।१४।१४), विजयार्द्ध (३।१८।५), कोटिशिला ( ३।२८।१ ), विजयाचल (३।२९।१०), रथावर्त (४।२३।११), शिखरी (१०।१४।२), महाहिमवन्त (१०।१४।४), रुक्मी (१०।१४।५), निषध (१०।१४।९) एवं नील (१०।१४।१०) के उल्लेख किये हैं, किन्तु इनमें से प्रायः सभी पर्वत पौराणिक हैं। हाँ, कोटिशिला एवं कैलास पर्वतकी स्थितिका पता चल गया है.। कोटिशिला वर्तमान गया
नामसे प्रसिद्ध है' और कैलास पर्वतको स्थिति मानसरोवर झीलके आसपास अवस्थित मानी गयी है।
नदियोंमें भी कविने गंगा (१०।१६।१), सिन्धु (१०।१६।१), रोहित (१०।१६।१), रोहितास्या (१०।१६।२), हरि (१०।१६।२), हरिकान्ता (१०।१६।२), सीता (१०।१६।२), सीतोदा (१०।१६।३), नारी (१०।१६।३), नरकान्ता (१०।१६।३), कनककूला (१०।१६!३), रूप्यकूला (१०।१६।४), रक्ता (१०।१६।४) एवं रक्तोदा (१०।१६।४) के उल्लेख किये हैं। इनमें-से गंगा और सिन्धु नदियाँ परिचित हैं । कुछ शोध-विद्वान प्रस्तुत गंगा और सिन्धुको वर्तमान गंगा और सिन्धुसे भिन्न मानते हैं और कुछ अभिन्न । बाकी की सब नदियाँ पौराणिक हैं।
पर्वत एवं नदियोंके समान वनोंके उल्लेख भी पौराणिक अथवा परम्परा-भुक्त है। अतः प्रमदवन
१. दे. श्रमण-साहित्य में वर्णित बिहारकी कुछ जैनतीर्थ भूमियाँ, [ लेखक डॉ, राजाराम जैन ], पृ. १-८ ।
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