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________________ प्रस्तावना सेय-मग्र्ग लग्गइ णिरु जसु मइ । ( ७|११|८ ) । (जिसकी बुद्धि यो मार्ग में निरन्तर लगी रहती है, क्या वह तरुण होनेपर भी उपशान्त नहीं हो जाता ? ) किं तरुणो वि ण सो उवसामइ इपिज्जण सिज्झइ चिति पुरुसहो सुविहि विरुज्झइ ( ७।१६।१ ) (रागी पुरुषका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, बल्कि उसके द्वारा विचारित सुविधि भी विपरीत हो जाती है ।) किं ण लहइ रु पुन्नेण भव्वु ( ८|६| २ ) । ( भव्यजन पुण्य द्वारा क्या-क्या प्राप्त नहीं कर लेते ?) जलहि व णव दिण्ण जलेहिं भव्वु धीरण वियार- निमित्तु दव्वु । ( ८1७1४ ) ( जिस प्रकार नदियोंका बहकर आया हुआ नवीन भारी जल भी समुद्रकी गम्भीरता को प्रभावित नहीं कर सकता, उसी प्रकार द्रव्य-सम्पत्ति धीर-वीर जनोंके लिए विकारका कारण नहीं बनती । ) ण मुवइ णिय चित्त हो धम्म भाव ( जो महानुभाव होते हैं, आरुहिउ पयावर वारणिदे Jain Education International (दिनों के पूर्ण हो जानेपर कौन किसको नहीं मार सकता ।) उवसम वियहि भूसिउ पुरिसो पणिय पणहि । विगयामरिसो । ( ४।१३।१-२ ) ( उपशम एवं विनय द्वारा प्रकटित प्रेमसे भूषित पुरुष क्रोधरहित हो जाता है 1 ) ते धन्न भुवर्ण ते गुण-निहाण यि - जम्मु- विवि-फलु लधु तेहि परियण मंतिण सुहिँ णिमित्त अव रोवि कोवि भुव-वल- महत्थु व्यावहारिक लोकोक्तियाँ मज्जहिं विवहिं ण महाणुभाव | ( ८1७१६ ) वे अपने वैभवसे विमूढ़ ( मनवाले ) नहीं होते ।) सहसत्ति विहिय मंगल अणें । ( ५।१५।६ ) ते विवुहाहिल-मज्झिर्ह पहाण । तन्हा विसयल द्दिलिय जेहिँ । कलुत्तु पुत्तु ण बंधु वित्तु दुव्विसय मुहहो रक्खण-समत्थु । (टाटा८-११) (भुवन में वे ही गुणनिधान धन्य हैं, और अखिल मध्यलोक में वे ही प्रधान पण्डित हैं, जिन्होंने समस्त तृष्णाभावका निर्दलन कर अपने जन्मरूपी विटपका फल प्राप्त कर लिया है । यथार्थ -सुख के निमित्त न तो परिजन ही हैं और न मन्त्रिगण और न कलत्र, पुत्र, बन्धु अथवा वित्त ही । अन्य दूसरे महान् भुजबलवाले भी दुर्विषयरूपी मुखसे किसी की भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हो सकते । ) किं सुह-हेउ ण विलसिउ कंत ५१ रमणिय अहिमुह परितह ( ७११६।४ ) । ( सम्मुख विराजमान पति ( कान्त ) का विलास क्या रमणी-जनोंके लिए सुखका कारण नहीं बनता ? ) इह भूरि पुण्णवं तर्ह णराह किंपि विण असज्झ मणोहराई ( ८1५1२ ) । ( महान् पुण्यशाली महापुरुषोंके लिए इस संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है । ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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