________________
प्रस्तावना
रचना-शैलीकी दृष्टिसे सुकुमालचरिउ, पासणाहचरिउ एवं वड्ढमाणचरिउके समान ही है। उसने आश्रयदाताकी प्रशंसामें प्रत्येक सन्धिके अन्तमें आशीर्वादात्मक विविध संस्कृत-श्लोक लिखे हैं। इन पद्योंकी संस्कृत-भाषा एवं रूप-गठन देखकर यह स्पष्ट विदित होता है कि कवि श्रीधर अपभ्रंशके साथ-साथ संस्कृत-भाषाके भी अधिकारी विद्वान थे। 'कुमर' विषयक उनका एक पद्य यहाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
यः सर्ववित्पद-पयोज-रज-द्विरेफः सदष्टिरुत्तममतिर्मदमानमुक्तः श्लाघ्यः सदैव हि सतां विदुषां च सोऽत्र श्रीमत्कुमार इति नन्दतु भूतलेऽस्मिन् ।
-दे. प्रथम सन्धि का अन्तिम श्लोक
कविकी यह रचना साहित्यिक गुणोंसे युक्त है । विविध अलंकारों एवं रसोंकी छटा तथा छन्द-वैविध्य दर्शनीय हैं । कविने रानीके नख-शिख वर्णनमें किस कुशल सूझ-बूझका परिचय दिया है वह द्रष्टव्य है
तही णरवइह घरिणि मयणावलि पहय-कामियण-मण-गहियावलि । दंत-पंति-णिज्जिय मुत्तावलि नं महहा करि वाणावलि । सयलंतेउरि मज्झे पहाणी
उच्छसरासण मणि सम्माणी । जहिं वयण-कमलहो नउ पुज्जई चंदु वि अज्जु विवट्टइ खिज्जइँ । कंकेल्ली-पल्लव सम पाणिहिँ
कल-कलयंठि वीणणिह वाणिहिँ । णिय सोहग्ग परज्जिय गोरिहि विज्जाहर सुरमण-घण-चोरिहि । अहर-लच्छि परिभविय पवालह परिमिय चंचल अलिणिह वालहे । सुर-नर-विसहर पयणिय कामहे अमरराय-कर-पहरण खामहे । णयणोहामिय सिसु सारंगहे सुंदर सयलावखयवहि चंगहे । जाहि नियंकु णिहाणु अकायहे सोहइ जिय तिहुअण-जण गामहे । थव्वड वयण सिहिणजुअलुल्लउ अह कमणीय कणय-घड तुल्लउ । रहइ जाहे कसण-रोमावलि
नं कामानल-घण-धूमावलि ।-सुकु.
(६) भविसयत्तकहा
कवि श्रीधरकी चौथी रचना भविसयत्तकहा है। भविष्यदत्तका कथानक प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी कवियोंका बड़ा ही लोकप्रिय विषय रहा है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसका नायक परम्परा-प्राप्त क्षत्रिय-वंशी न होकर वैश्य या वणिक् जातिका है। इस कथानकके सर्वप्रथम कविने परम्पराप्राप्त नायककी जातिका सहसा ही परिवर्तन कर सचमुच ही बड़े साहसका कार्य किया था। कवि-सम्प्रदाय एवं प्राच्य-परम्परा-भोगियों के लिए यह एक बड़ी भारी चुनौती थी। सम्भवतः उसका प्रतिरोध भी अवश्य हुआ होगा। किन्तु हमारे सम्मुख उसके प्रमाण नहीं हैं। इन साहसी कवियोंमें धर्कटवंशी महाकवि धनपाल सर्वप्रमुख हैं, जिन्होंने १०वीं सदी के आस-पास "भविसयत्तकहा'का सर्वप्रथम प्रणयन किया था। उसके बाद उस कथानकको आधार मानकर कई कवियोंने विविध भाषा एवं शैलियोंमें इसकी रचना की।
१. आमेरशास्त्र भण्डार,जयपुर प्रति। [दे. जै. ग्र. प्र. सं.द्वि. भा, पृ. ५०] । २. गायकवाड ओरियण्टल सीरीज बड़ौदा (१९३७ ई.) से प्रकाशित ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org