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________________ प्रस्तावना १५ छन्द, अलंकार एवं रसकी दृष्टिसे यह रचना बड़ी समृद्ध है। छन्दोंमें उसने पद्धडिया, पत्ता, द्विपदी, वस्तु, दोधक, स्रग्विणी, भुजंगप्रयात, मदनावतार, त्रोटक, रथोद्धता प्रभृति छन्दोंका प्रयोग किया है। छन्दप्रयोगमें उसने प्रसंगानुकूलताका ध्यान अवश्य रखा है। छन्द-विविधताकी दृष्टिसे चौथी सन्धि विशेष महत्त्वपूर्ण है । अलंकारोंमें उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारोंको बहुलता है। रसोंमें शान्त-रस, अंगी-रसके रूपमें प्रस्तुत हुआ है। गौण-रूपमें शृंगार, वीर, भयानक एवं रौद्र रसोंका परिपाक द्रष्टव्य है। इतिहास, संस्कृति एवं मध्यकालीन भूगोलका तो यह ग्रन्थ कोष-ग्रन्थ कहा जा सकता है। पासणाहचरिउमें प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रीपर अगले 'ऐतिहासिक तथ्य' प्रकरणमें कुछ विशेष प्रकाश डाला जायेगा।। ____ कविने उक्त ग्रन्थकी रचना वि. सं. ११८९ में की थी। इस प्रकार विबुध श्रीधरकी उपलब्ध रचनाओंमें यह रचना प्रथम है । (४) वड्डमाणचरिउ . विबुध श्रीधर की दूसरी रचना प्रस्तुत 'वड्डमाणचरिउ' है जिसका मूल्यांकन आगे किया जा रहा है । (५) सुकुमालचरिउ श्रमण-संस्कृतिमें महामुनि सुकुमाल एकनिष्ठ तपस्या तथा परीषह-सहनके प्रतीक साधक माने गये हैं। जैन-दर्शनमें पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त एवं निदान-फल-निर्देशनके लिए यह कथानक एक आदर्श उदाहरण रहा है। समय-समय पर अनेक कवियोंने विविध-भाषाओंमें एतद्विषयक कई रचनाएँ की है। प्रस्तुत ग्रन्थके आधार पर सुकुमाल अपने पूर्व-भवमें कौशाम्बी-नरेशके एक विश्वस्त-मन्त्रीका वायुभूति नामक पुत्र था। उसका स्वभाव कुछ उग्र था। किसी कारण-विशेषसे उसने एक बार अपनी भाभीके मुँहमें लात मार दी। देवरके इस व्यवहार पर भाभीको असह्य क्रोध उत्पन्न हो आया। उसने उसी समय निदान बांधा कि मैंने अभी तक जो भी कर्म किये हैं, उनका अगले भवमें मुझे यही फल मिले कि मैं इस दुष्टकी टांग ही खा डालूँ । पर्यायें बदलते-बदलते अगले भवमें उक्त भाभी तो शृगालिनी हई तथा वायभति-मन्त्रीका वह पुत्र मरकर उज्जयिनीके नगरसेठका सुकुमाल नामक अत्यन्त सुकुमार पुत्र हुआ। सांसारिक भोग-विलासों के बाद दीक्षित होकर वह साधु बन गया। उसी स्थितिमें जब एक बार वह घोर-तपश्चर्या में रत था, तभी उक्त भूखी शृगालिनीने आकर पूर्व-निदानके फलस्वरूप उस साधुकी टाँगे खा डालीं। उसी स्थितिमें सुकुमालका स्वर्गवास हुआ और वह कठोर तपके प्रभावसे सर्वार्थसिद्धि-देव हआ। उक्त कथानकका स्रोत हरिषेण कृत बृहत्कथा-कोष है। कविने उससे कथावस्तु ग्रहण कर उसे अपने ढंग से सजाया है। इस ग्रन्थका विस्तार ६ सन्धियों एवं २२४ कडवक-प्रमाण है। कविने इसकी रचना वि. सं. १२०८ मगशिर कृष्ण तृतीया चन्द्रवारके दिन बलडइ नामक ग्राममें राजा गोविन्दचन्द्र के कालमें पुरवाड कुलोत्पन्न पीथे साहूके पुत्र कुमरके अनुरोध पर की थी। कविने उक्त आश्रयदाता कुमरकी वंशावली इस प्रकार प्रस्तुत की है - १. पासणाह.-१२११८.१०-१२ । २. सिंघो जैन सोरीज, भारतीय विद्याभवन बम्बईसे प्रकाशित तथा प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित । ३. सुकुमाल०६।१३-दे. इसी म्रन्थकी परिशिष्ट सं. १ (ख) ४. वही. ६।१२-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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