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वडमाणचरिउ
[८. १७. १४घत्ता-धम्म-रह-रहंग हो सुंदरहो हरिसिय-णर-खयर-पुरंदरहो।
जो णेमिचंद-जस भसियउ तव-सिरिहर-मुणिहिं पसंसियउ ॥१७०॥
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इय सिरि-वड्ढमाण-तित्थयर-देव-चरिए पवर-गुण-रयण-णियर-मरिए विबुह सिरि सुकइ सिरिहर विरइए साहु सिरि णेमिचंद अणुमपिणए णंदणमुणि पाणय कप्पे गमणो णाम
अट्टमो परिच्छेओ समत्तो ॥संधि-८॥
न यस्य चित्तं कलितं तमोभिः शुभ्रीकृतं यस्य जगद् यशोभिः । निआन्वय व्योमिनि [निजान्वय व्योम्नि ] पूर्णचन्द्रः प्रशस्यते किं न स नेमिचन्द्रः॥
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