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________________ सन्धि ८ महाशुक्रदेव [ हरिषेणका जीव ] क्षेमापुरीके राजा धनंजयके यहाँ पुत्ररूपमें जन्म लेता है इसी जम्बूद्वीपमें श्रेष्ठ एक पूर्व-विदेह नामक क्षेत्र है जहाँ सीता नदीके तटपर विशेष वरदानोंसे संचित तथा समस्त इन्द्रियोंके विषय पदार्थों सहित कच्छा नामका एक देश अवस्थित है। उसी कच्छा देशमें नाना प्रकारके मणि-समूहोंसे निर्मित उत्तुंग एवं विशाल परकोटोंवाली क्षेमापुरी नामकी एक नगरी स्थित है, जिसकी ध्वजावलियाँ सुरवरोंको (अनुपम होने तथा विमानोंके आवागमनमें बाधक होनेके कारण ) भली नहीं लगती। ऐसा लगता है मानो वह नगरी ५ स्वर्गसे ही आ गिरी हो। उसी नगरीमें नागरिक जनोंके मनको हरण करनेवाला, कांचनकी प्रभावाला पृथिवीनाथ धनंजय ( नामका राजा) हुआ, जिसने चपला होनेपर भी लक्ष्मीको वशंगत कर लिया था, तथा जिसे देखकर (चंचला) मृगाक्षियाँ भी निश्चल हो जाती थीं। उस राजा धनंजयकी प्रेमानुराग प्रभावती नामकी एक भार्या थी, जो ऐसी प्रतीत होती थी, मानो काम-विजयको १० वैजयन्ती-पताका ही हो, जो गमन करते समय कलहंसिनीकी तरह सुशोभित होती थी, जो शोभासौन्दर्यमें प्रधान, अपयश एवं विग्रहसे दूर रहनेवाली तथा लज्जाकी मूर्तिके समान थी। रात्रिके अन्तमें शय्यातलपर निद्रावश मुकुलित नेत्रोंवाली उस प्रभावतीने एक शुभ स्वप्नावली देखी तथा उसे उसने अपने प्रियतमके सम्मुख आश्चर्य उत्पन्न करते हुए कह सुनाया। नेत्रोंके लिए सुखकारी, तथा भित्ति चित्रके समान सजीव वह रानी (प्रभावती) आनन्द-चित्तपूर्वक जब घरमें निवास १५ कर रही थी घत्ता-तभी वह महाशुक्रदेव अपनी आयुष्य पूर्ण कर तथा स्वर्गसे चयकर उस रानीके यहाँ पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ, जो रूपादि गुणोंसे अलंकृत था और ऐसा प्रतीत होता था मानो यश ही मूतिमान् होकर अवतरा हो ॥१५४॥ नवोत्पन्न बालकका नाम प्रियदत्त रखा गया। उसके युवावस्थाके प्राप्त होते ही राजा धनंजयको वैराग्य उत्पन्न हो गया। महान् आनन्दसे परिपूरित मनवाले सज्जनोंने उस बालकका नाम प्रियदत्त रखा। (उसके) बद्धि-वैभवके वशीभत होकर सारभूत समस्त विद्याएँ उसे धारण कर उसकी पहलेसे ही उपासना करने लगीं। वे ( विद्याएँ ) ऐसी प्रतीत होती थीं मानो षट्खण्ड मण्डलाधिपकी राज्यरूपी श्रीकी मनोहर दूतियाँ ही हों। लोकमें जिस प्रकार समुद्र निर्मल रत्नोंका आधार होता है, उसी प्रकार वह प्रियदत्त भी सद्गुणोंका भाजन हो गया। किन्तु उसमें यह एक विचित्रता थी कि यद्यपि ५ उसमें लावण्य ( समुद्र-पक्षमें खारापन, अन्य पक्षोंमें लावण्य ) था, फिर भी वह सर्वत्र माधुर्य गुणका ही विस्तार करनेवाला था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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