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________________ ७. १५. १७] हिन्दी अनुवाद १७७ सुप्रतिष्ठ मुनिसे दीक्षा लेकर राजा हरिषेण महाशुक्र-स्वर्गमें प्रीतंकर देव हुआ ___ इस प्रकार राज्यलक्ष्मीका सुख-भोग करते हुए, बुधजनोंका मनोरंजन करते हुए, सुखकारी श्रावक-वृत्तिका आचरण करते हुए उस नरनाथ हरिषेणके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। इस बीचमें अप्रमादी, मोह-जालसे रहित एवं काम-विजेता, सुप्रतिष्ठ नामक मुनीश्वर विहार करते-करते प्रमद-वनमें पधारे।। उन मुनिराजके पद-पंकज युगलको प्रणाम कर वह नरनाथ उपशमभाव भाकर, दीक्षा ५ ग्रहण कर तथा प्रशस्त-शास्त्रोंको उपलक्षित (-मनन एवं चिन्तन ) कर भव्यजनोंको प्रबोधित करने लगा। उस मुनिनाथ ने चिरकाल तक प्रमाद रहित होकर निस्पृह भावसे दुश्चर-तप करके अन्तकालमें अपने हृदय-कमलमें जिनवरके गुणोंको पैठाकर सल्लेखना-भावसे विधिपूर्वक प्राणोंको छोड़ा, सुखके निधानरूप महाशुक्र स्वर्गमें गमन किया और वहाँ वह देवांगनाओं द्वारा सम्मानित कायवाला प्रीतंकर नामक देव हो गया। जिन-भणित आगम-मार्ग द्वारा उस देवकी .. आयुका प्रमाण १६ सागर समझो। - वहाँ भी जिनेन्द्रकी पूजा तथा स्तुति कर वह प्रीतंकर देव अनिन्द्य जिनेन्द्रके सम्मुख बोला-"भव्यजनोंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हे स्वामिन्, मुझे इस संसारसे हटाइए। घत्ता-जन्म-मरणको हरनेवाले, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीके धारी हे जिनेन्द्र, दया कर आप ऐसा करें कि अज्ञानरूपी अन्धकारसे रहित तथा तीनों लोकोंमें दानी कवि विबुध श्रीधर एवं नेमिचन्द्र ( आश्रयदाता ) निरन्तर यशके गृह बने रहें ॥१५३।। सातवों सन्धिको समाप्ति इस प्रकार प्रवर गुणरूपी रत्न-समूहसे भरपूर विबुध श्री सुकवि श्रीधर द्वारा विरचित ___ एवं साहु श्री नेमिचन्द्रद्वारा अनुमोदित श्रीवर्धमान तीर्थकर देव चरितमें 'हरिषेण मुनिका स्वर्गगमन' नामका सातवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ सन्धि ॥७॥ आशीर्वाद जो सम्यग्दृष्टि है, उदार एवं धीर बुद्धिवाला है, लक्ष्मीवानों द्वारा सम्मान्य न्यायके अन्वेषणमें तत्पर रहता है, परमत द्वारा कथित आगमोंसे असंगत (दूर रहता है) तथा जिनेन्द्रको ही देवता माननेवाला, भव, भोग और क्षणभंगुर शरीर तीनोंसे वैराग्य-भाववाला वह श्री नेमिचन्द्र चिरकाल तक इस लोकमें निरन्तर ही आनन्दित रहे ।। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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