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________________ सन्धि ७ धातकोखण्ड वत्सादेश तथा कनकपुर नगरका वर्णन इसके अनन्तर जीवोंसे निरन्तर व्याप्त १२ सूर्यों एवं १२ चन्द्रोंसे दीप्त, सुन्दर विस्तीर्ण नगरोंसे युक्त धातकी खण्ड द्वीपमें- पूर्व-सुमेरुके पूर्व-विभाग स्थित विशाल विदेह क्षेत्रमें विख्यात एवं मनोहर वत्सा नामक देश है, जहाँ मुनि-गण भव्यजनोंके मनको हर्षित करते रहते हैं। वह वत्सादेश सीता नदीके तटसे लगा हुआ था तथा उसके भवनोंके शिखरसमूह नभस्तलको छूते रहते थे। वहाँ क्रीड़ा करते हुए ५ गमनचरोंसे युक्त २५ योजन ऊँचा एक चंगा ( सुन्दर ) विजया पर्वत है, जो ५० योजन चौड़ा, रौप्य वर्णवाला तथा मणि-किरणोंसे चित्र-विचित्र है। जहाँ सर्वत्र धुली हुई ( अर्थात् पानी उतरी हुई ) करवालकी किरण-रेखाके समान लगनेवाली श्यामांगियाँ-अभिसारिकाएँ दिनमें भी रात्रिके समान निराबाध होकर जाती-आती थीं। वे ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो नभस्तलको मूर्तिमती रात्रियाँ ही हों। जिस विजयार्द्धके कूटशिखर अति कान्तिमान् होनेके कारण अमरवधुओं द्वारा १० सेवित न थे, उनके द्वारा वे त्याग दिये गये थे। क्योंकि वे ( अमरवधुएँ ) खेचरोंको उन कूटोंकी अप्रमाण कान्ति दिखा-दिखाकर अपने मन में लज्जित होती रहती थी। उस विजयार्द्धकी उत्तर श्रेणीमें सुरोंके मनको हरण करनेवाला तथा तिमिरको नष्ट करनेवाला कनकपुर नामका एक नगर स्थित है, जहाँ विद्याधरियोंके निष्कलंक मुख-कमलोंपर श्वासकी गन्धके कारण पड़ते हुए तथा ___घत्ता-हाथोंसे हटाये जानेपर भी पुनः-पुनः अति हर्षित मनसे भ्रमर-समूह मदोन्मत्त होकर मँडराता रहता है तथा नेत्रोंको शुभ लगनेवाले (विद्याधरियोंके ) कोमल करोंपर रक्तकमलको आशंकासे वह भ्रमर-समूह बलि-बलि हो जाता है ॥१३७।। हरिध्वज देव कनकपुरके विद्याधर नरेश कनकप्रभके यहाँ कनकध्वज नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। उस कनकपुरमें विद्याधरोंका स्वामी कनकप्रभ ( निवास करता ) था, जिसने अरिजनोंको जीतकर उन्हें निष्प्रभ ( अथवा निष्पथ ) कर दिया था। जो बुधजनोंका मनोरंजन तथा मानियों के मानकी उन्नतिका भंग करता हुआ राज्य कर रहा था। उसके भूषणोंको कान्ति नभांगणको भी विस्फुरायमान करती थी। उसके रूपकी शोभा त्रिदशांगनाओंको भी मोहित करनेवाली थी, जिसकी खड्गमें जयश्री स्वयं ही ( आकर ) अचल रूपसे निवास करती है, मानो वह ( जयश्री) उसके भयसे अपमानित होकर ही उसमें (अचल रूपसे ) रहने लगी हो। वैरीजनोंके मुखोंका क्षय करनेवाली इसी तलवारकी धारसे ( भयभीत होकर ) वैरीजन आरम्भमें ही नीचा मुख करके चलने लगते थे, नरकुलके लिए सूर्य समान उस राजाके सम्मुख तीक्ष्ण सूर्य भी म्लान-मुख हो जाता था। वह रणक्षेत्रमें सुभट-शिरोमणियोंको नहीं देखता था, मानो यही समझकर उस ( राजा ) के प्रतापने शत्रुओंको वहाँसे हटा दिया हो। २१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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