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________________ ६. ४.८] हिन्दी अनुवाद अपनी पुत्री स्वयंप्रभाको भी शिक्षाएँ देकर तथा उसके नेत्रोंसे बहते हुए आँसुओंको जिस किसी १० प्रकार पोंछकर स्वजनोंका हितकारी वह ज्वलनजटी वायुवेगके साथ रथनूपुर लौट आया। इधर वह त्रिपष्ठ सोलह सहस्र नरेश्वर, सेवकोंके समान सेवा करनेवाले अनेकों देव तथा सोलह सहस्र प्रणयिनी वधुओंके साथ सुशोभित होने लगा। घत्ता-प्रजापति अपने पुत्रका राज्य-संचालन देखकर चित्तमें बड़ा सन्तुष्ट हुआ और बन्धुजनोंके साथ जिन-धर्म में प्रवृत्ति करने लगा ॥११९॥ त्रिपृष्ठ व स्वयंप्रभाको सन्तान प्राप्ति विकसित बदन, मुकुलित हाथोंवाले खेचरजनों द्वारा प्रणत तथा उन्हींके मुकुटोंमें प्रविष्ट अपने पद-नखोंकी नयन-सुखावह किरणावलीसे युक्त होकर तथा त्रिखण्ड पृथिवी-वलयको प्राप्त कर दसों दिशाओंमें निर्मल-यशसे युक्त उस त्रिपष्ठके पुण्यसे सूर्य मन्द-मन्द तपता था; धरती ( बिना बोये ) स्वयं ही शस्योंसे परिपूर्ण रहती थी; प्राणियोंका अकाल-मरण नहीं होता था, मेघ सुगन्धित जलोंकी रिमझिम-रिमझिम वर्षा किया करते थे; तन-वदनके लिए सुखकारी समीर प्रवाहित रहती ५ थी; जो पसीना एवं थकावटको समाप्त करती रहती थी; जहाँ मनोरथ विफल नहीं होते थे; वृक्षसमूह फल, दल-पत्र एवं पुष्पोंसे लदे रहते थे। इन सभी आश्चर्यकारी अवसरोंपर प्रतिहरिहयग्रीवका वध करनेवाला उस हरि-त्रिपृष्ठके लिए प्रभुत्व प्राप्त हो गया। ... इस प्रकार अनवरत रूपसे प्रचुर-करों (चुंगियों) को समर्पित करनेवाली तथा समुद्रके जलसे घुली-मिली मेखला ( सीमा ) वाली एवं मद जल प्रवाही मत्तगजोंसे सुसज्जित पृथिवीका १० वह त्रिपृष्ठ परिरक्षण कर रहा था तभी उसकी शशिप्रभावाली पट्टरानी स्वयंप्रभाने क्रमशः एकके बाद एक इस प्रकार दो पुत्रों और एक पुत्रीको जन्म दिया। घत्ता-मानो ( उस त्रिपृष्ठको प्रसन्न करनेके लिए ) उसकी रमणीरूपी धरणीने प्रवरश्रीके साथ-साथ सभीको आश्चर्यचकित कर देनेवाले उत्तम कोष एवं दण्डको ही उत्पन्न कर दिया हो ॥१२०॥ १५ उस सन्तानका नाम क्रमशः श्रीविजय, विजय और द्युतिप्रभा रखा गया प्रथम पुत्रका नाम श्रीविजय रखा गया तथा दूसरा दीर्घभुजाओंवाला पुत्र विजय नामसे प्रसिद्ध हुआ। पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान मुखवाली कन्याका नाम द्युतिप्रभा रखा गया। दोनों पुत्रोंने अश्वारोहण व गजारोहण विद्याका मनन किया तथा समस्त आयुध विद्याको गुन लिया। दोनों ही पुत्र शत्रुदलके विदीर्ण करनेमें मुसल समान थे। कन्या भी समस्त कलाओंमें कुशल हो गयी। इसी बीच दूतके मुखसे सुना कि नभचरपति (ज्वलनजटी ) संसार त्याग कर तपके शिखरपर जा बैठा है, तब पोदनपुरपति (प्रजापति) ने अपने मनमें विचार किया कि “संसारमें रथनूपुर स्वामी (ज्वलनजटी) ही धन्य है जो स्व-पर ( के भेद ) को मान गया तथा जिसकी बुद्धि अहर्निश परमगति ( मोक्ष ) का सुन्दर चिन्तन किया करती है। इस गति एवं मतिमें कुमनवाला नर यही सोचा करता है कि ये हय, गज, बन्धु-बान्धव, यह धन, ये भक्तमनवाले सेवकगण, शत्रुजनोंको १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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