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________________ १३३ ५. १९.७] हिन्दी अनुवाद १८ तुमुल-युद्ध-हरिविश्व और भीमको भिडन्त दुवई हरिविश्व मन्त्रीने अपने दौड़ते हुए हाथीके समान घोड़े द्वारा हरिको बीचमें ही रोक दिया तथा भीमका सुन्दर वक्षस्थल शक्ति द्वारा वेध डाला ॥ तब शरासन छोड़कर अपनी किरणोंसे गगन-मार्गको उयोतित करनेवाले खड्गको लेकर भीम-शक्तिवाले .भीमने उस हरिविश्वको देखते ही क्रुद्ध होकर उसे उसके रथसे खींच लिया और लात मारकर तत्काल ही उसके माथेपर तलवारसे वार किया। अपने भुजबलसे विद्याधरोंको हर्षित करनेवाले धूमशिखके मानरूपी पर्वतको खण्डित कर वह शतायुध भीम रणके मध्यमें किस प्रकार सुशोभित हुआ ? ठीक उसी प्रकार-जिस प्रकार कि मदोन्मत्त हाथीका विदारण करनेवाला सिंह (सुशोभित होता है)। . अनवरत मद-प्रवाहसे सरित्प्रवाहको भी जीत लेनेवाले ऐरावत हाथी की सूंड़के समान १० भुजाओंवाले अशनिघोष ( हयग्रीव का पक्षधर ) को जब उस ( भीम ) ने युद्धमें जीत लिया तब उस (भीम ) का 'शत्रुजय' यह नाम सार्थक हो गया। समस्त क्रुद्ध सैन्य-समुदायको भी कँपा देनेवाले, कम्प ( भय ) रहित क्रोधी अकम्पनने अपने तीव्र वेगवाले बाण-समूहसे जनपदको पाट दिया। ( तब ) ऐसा प्रतीत होता था मानो वे ( बाणसमूह ) हयगल ( अश्वग्रीव ) की जय-ध्वज ही हों। ज्याको खींचकर स्थिर दृष्टिसे देखकर तीक्ष्णाग्न १५ बाणावलि छोड़कर अर्ककीर्तिने रणभूमिमें विस्तृत समस्त सैन्य विशेषको पराजित कर जब उस खेचर महीप हरिविश्वको अपने चरणोंमें झुका लिया तब वह तुरगग्रीव पुनः सम्मुख उपस्थित हुआ। ___ घत्ता-उस तुरगग्रीवने लीलापूर्वक देखा कि उस अर्ककीति ( विद्याधर ) ने रणमें आये हुए प्रतिपक्षी खेचरोंके भालतल शैलवर्तसे कुचल डाले हैं ॥११२।। २० १२ तुमुल-युद्ध-अर्ककोतिने हयग्रीवको बुरी तरह घायल कर दिया दुवई ( उस तुरगगलने ) अपने हाथमें धनुष लेकर तथा विशिख (बाण) पंक्तिका सन्धान कर ( उसे ) छोड़ा। वह ( बाणपंक्ति ) इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, मानो गगनांगणमें गगनचरों ( विद्याधरों ) की पंक्ति ही हो। मनमें उत्पन्न दुस्सह क्रोधसे लाल होकर उस हयग्रीवने जयरूपी लक्ष्मीके लिए लीलावधान पूर्वक, अनवरत छोड़े गये अपने बाणोंसे उस अर्ककीर्तिकी सवंशवाली लक्ष्मी-लताके साथ-साथ ५ ध्वजाकी वंश-यष्टि ( बाँसकी लाठी ) को भी नष्ट कर डाला तथा ऐरावत हाथीकी Vड़के समान अपने बायें हाथसे उस अर्ककीर्तिके प्रचण्ड एवं सुदृढ़ बाहुदण्डमें स्थित तीक्ष्ण बाणको छेद डाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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