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________________ ५. ३. १३ ] हिन्दी अनुवाद ११३ इस प्रकारके विकल्पमें विरमकर कभी, जो दपंका परित्याग किये हुए है, उसका इस स्थिति में दोष ही क्या ? वह भव्य चक्रवर्ती तो, जो उसे प्रणाम करते हैं, उनके लिए ( समय ५ आनेपर ) अपने प्राणों को भी कुछ नहीं समझता ( अर्थात् अपने लिए प्रणाम करनेवालों के लिए वह अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता है ) । जब उस हयकन्धर चक्रवर्ती, हयग्रीवने प्रसन्न मनसे देवों, मनुष्यों एवं खेचरोंके मनको प्रिय लगनेवाली अनेक कान्ताओंको पूर्वमें भी समर्पित ( प्रदान ) कर दिया, तब क्या आपकी मन-चिन्तित स्वयंप्रभाको भी वह न छोड़ देते ? क्या उनके पास अप्सराओंके समान रतिमें समर्थं १० सुमनोरम नारियाँ नहीं हैं ? फिर भी स्वाभिमान इस अतिक्रम ( इच्छा के विरुद्ध कार्यं ) को सहन कर रहा है तथा उस दुःसह कार्यको थोड़ा भी प्रकटित न होने देनेके दुःसह प्रयासको कर रहा है । अतः उस मनोज्ञ चक्रवर्तीकी अनुनय-विनय कर उसे प्रसन्न करके तुम जिनसुखोंका अनुभव करोगे, उन्हें, तुम ही कहो, कि क्या सुन्दर प्रभावाली उस स्वयंप्रभाके चंचल नेत्रोंसे पा सकोगे ? जिस व्यक्तिने सदाके लिए अपनी इन्द्रियोंको जीत लिया है, उसका दूसरोंके द्वारा पराभव नहीं १५ हो सकता, बुधजनों ने मनुष्यके उसी जीवनको इलाघनीय माना है, जिसने अपयशका तिरस्कार कर दिया हो । घत्ता - आपके विवाहको सुनकर दूसरोंके द्वारा रोके जानेमें जब अधरोष्ठ दबाकर समरांगण में आपको मारने हेतु उठ खड़े हुए थे स्वयं ही आकर उन्हें रोका था” ||९६|| ३ विजय हयग्रीवके दूतको डाँटता है दुवई "अन्य नारी जनों में निस्पृह रहनेवाले उस प्रभु हयग्रीवके लिए समर्पित करने हेतु तथा उसके स्नेहकी प्राप्तिके निमित्त आप अपने मन्त्रिजनों के साथ स्वयंप्रभाको मेरे साथ भेज दीजिए इसमें ( आपकी ) भलाई है ।" कठिन दुर्जेय विद्याधर गण तब हमारे प्रभु ( हयग्रीव ) Jain Education International ५ १० अश्वग्रीवा दूत इस प्रकार कहकर और चुप्पी साधकर सरककर बैठ गया । इसी बीच में समस्त गुणरूपी रत्नों की खानि तथा न्याय-नीतिपूर्वक हृदयकी वाणीवाले बलदेव ( विजय ) ने कहा - " अरे (दूत), इस प्रकारके वचन हयग्रीव जैसे हितैषी प्रसन्न व्यक्तिको छोड़कर अन्य दूसरा कोई नहीं बोल सकता । सत्पुरुषोंके वल्लभ एवं चतुर हयग्रीवको छोड़कर अन्य दूसरा कौन न्याय-नीति में निपुण हो सकता है, तथा उसके समान दूसरा कौन ज्ञानी सुना गया है ? फिर भी हाय, वैसा जानकर हयग्रीव यह भी ( लोक व्यवहार ) नहीं जानता कि संसारमें जो कोई भी वर किसी कन्याका वरण कर लेता है तब कहो कि वही उसका वर क्यों हो जाता है ? तो, ( सुनो ) इसमें देव ही प्रमुख कारण माना गया है, अन्य कोई कारण नहीं। कोई भी सामान्यव्यक्ति इस नियमका उल्लंघन नहीं कर सकता । ( फिर भी ) ऐसे अन्यायपूर्ण एवं युक्तिहीन कार्यको करते हुए भी अपने स्वामीको तुमने क्यों नहीं रोका ? अथवा न्यायनीति रहित एवं अयुक्त ( कार्यं करनेवाले ) प्रभुको तुम जैसे बुद्धिमान दूत भी मान्यता दे रहे हो ( यही आश्चर्यका विषय है ) । पूर्वार्जित उत्तम पुण्यके प्रभावसे किस व्यक्तिको मनोहर वस्तुओंकी उपलब्धि नहीं हो जाती ? वह बलवान ही क्या, जो तिरस्कृत होकर डाँट फटकार खा जाये, जो कोई सुवर्णों ( युक्तियुक्त कथन ) को न माने, वह देवका मारा ही ( कहा जाता ) है | १५ १५ For Private & Personal Use Only २० www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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