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________________ सन्धि५ (विद्याधर-चक्रवर्ती ) हयग्रीवका दूत सन्धि-प्रस्ताव लेकर त्रिपृष्ठके पास आता है अन्य किसी एक दिन पंचानन-सिंहका निर्दलन करनेवाले उस त्रिपृष्ठकी सभामें हयगलअश्वग्रीवके एक सुन्दर दूतने आकर प्रणाम कर और प्रणत सिर होकर ( इस प्रकार ) निवेदन किया। दुवई - "हे नागर, आपकी धैर्यशीलता आपके समुन्नत मनको प्रकट कर रही है। समुद्रकी तरंग- ५ पंक्ति, क्या उसके जलकी अति-गम्भीरताको नहीं बतला देती ?" "बुधजनों द्वारा आपके गम्भीर-गुण-समूहका (परोक्ष ) श्रवण मात्र भी हमारे लिए आनन्दका जनक रहा है और ( अब तो साक्षात् ही) आपकी देहका दर्शन हमारे मनका अपहरण कर रहा है। यथार्थतः आपने ये दोनों ही (-गम्भीर गुण-समूह एवं मनोहारी देह)-दुर्लभ ( वस्तुएँ ) प्राप्त की हैं। आपके निरुपम, कोमल, निर्मलतर सुधारसके समान शीतल एवं वचनोंसे १० कठोर पुरुष भी उसी प्रकार विद्रावित हो जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमाकी सुखकारी किरणोंसे चन्द्रकान्त मणि। इन्हीं कारणोंसे गुण-समूहका धारक वह चक्रवर्ती हयग्रीव आपके ऊपर स्नेह करता है अतः आप दोनों प्रणय मनवाले जनोंके लिए यही युक्तिसंगत होगा कि (परस्परमें ) सन्धि कर लें। क्योंकि ऐसा कहा गया है कि गम्भीर-विचारके बाद किया गया जो भी कार्य है, बिगड़ता नहीं। नय-नीति-प्रवीण महान् एवं महामतिवाले स्वामी, सेवक, माता, १५ कलत्र, बन्धु-बान्धव, पिता, गुरु, मित्र, पुत्र, भाई, चाचा आदि कभी रूसते नहीं हैं। चक्रसे अलंकृत हस्तवाले उस सुन्दर हयग्रीवने चिरकालसे स्वयंप्रभाको ही तो माँगा था घत्ता-किन्तु यह ठीक है कि ( चक्रवर्ती हयग्रीवकी ) उक्त मांग निश्चय ही आपके कानोंमें अभी-अभी ही सुनाई दी होगी। यदि प्रभु ( हयग्रीव ) पहले ही इस बातको जानते (कि आप उसे चाहते हैं ) तो वे आपके मनके अनुसार ही करते। स्नेह-विजडित होकर कोई अपने स्नेही २० व्यक्तिकी भला अविनय करेगा ?" ॥९५॥ (हयग्रीवका) दूत त्रिपृष्ठको हयग्रीवके पराक्रम तथा त्रिपृष्ठके प्रति अतीतकी परोक्ष सहायताओंका स्मरण दिलाता है दुवई "अपने कुल रूपी कमलके लिए बन्धुके समान उस चक्रवर्ती ( हयग्रीव ) ने यह भी कहा है कि परोक्ष-बन्धु ( त्रिपृष्ठ ) ने मेरी परिस्थितिका विचार किये बिना ही उस स्वयंप्रभाके साथ पाणिग्रहण कर लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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