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३. १३. ११]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-अपने सद्गुणोंसे आनन्दित हे देव, ( नन्दनवनके ) रखवालोंने जो किया, उसे १५ आप आकर देखेंगे ही। दुस्सह रणरंगभूमिमें मेरे अंग ध्वंसित ( कैसे ) हो गये, हे देव, उसे भी आप वहीं सुनेंगे" ||५०॥
कामरूप-शत्रु पर विजय प्राप्त कर युवराज विश्वनन्दि स्वदेश लौटता है तो प्रजाजनको
आतर मन हो पलायन करते देखकर निरुद्ध नामक अपने
महामन्त्रीसे उसका कारण पूछता है इस प्रकार वनपाल द्वारा निवेदित वनहरण एवं समर-यात्राका वृत्तान्त सुनकर प्रारम्भमें ही उस धीर-वीर युवराजने हृदयमें क्रोधित होकर अपने दुस्सह प्रताप, शक्ति एवं न्याय-नीति द्वारा संसारके वैरीजनोंपर विजय सम्पादित कर डाली। इसी बीच में जब उसने समरभमिमें 3 शत्रु ( कामरूप ) को पराजित किया तब उसने भी माथा झुकाकर अत्यन्त प्रेम जनाकर, भेंट देकर तथा कर ( टैक्स ) देना स्वीकार कर लिया और ( बादमें ) युवराजकी आज्ञा प्राप्त कर वह ५ श्रेष्ठ हाथीकी गतिसे भागा। - शत्रुके लिए दुस्सह एवं स्वयं मनोहर लगनेवाले उस युवराजने सफलता प्राप्त कर, अपनेअपने ( विजित ) नगरमें कोई न कोई राजलोक (प्रतिनिधि ) छोड़कर ( वहाँसे ) स्वयं विसर्जित हुआ ( और देशकी ओर बढ़ा )। स्वदेशमें ( पहुँचते ही) अपने प्रजाजनोंपर आकुल मन होकर दृष्टिपात करते हुए एवं उसे शीघ्रता पूर्वक भागते हुए देखकर तथा सभी कार्योंको करने में समर्थ १० अपने निरुद्ध नामक मन्त्रीको आते हुए देखकर, उसने उससे पूछा-"ये लोग अपनी-अपनी भूमि छोड़कर क्यों भागे जा रहे हैं ? इसका कारण कहो।"
पत्ता-उसे सुनकर धर्मसे विशुद्ध एवं निष्पाप उस निरुद्ध नामक मन्त्रीने धीर-वाणीमें. (युवराजसे ) कहा-“हे न्यायनीति धारण करनेवाले, तथा दूसरोंकी भावनाको जाननेवाले-॥५१॥
उपवनके अपहरणके बदले में विश्वनन्दिको प्रतिक्रिया तथा अपने मन्त्रीसे उसका परामर्श
"लक्ष्मणाका पुत्र विशाखनन्दि उग्र कोपके कारण तुम्हारे उपवनके चारों ओर किलेबन्दी करके यहाँ आपके साथ युद्ध करना चाहता है। आपको ( विश्वनन्दि ) और उस विशाखनन्दिको समान नरपति मानकर तथा (भीषण युद्धमें नरसंहारकी कल्पना करके ) भयभीत होकर समस्त प्रजा पलायन कर रही है। ( बस मैं इतना ही जानता हूँ इसके अतिरिक्त ) और विशेष कुछ नहीं जानता।" मन्त्रीका यह कथन सुनकर दीर्घ भुजावाले जयनोके पुत्र उस विश्वनन्दिने अपने मनमें ५ विचार किया और इस प्रकार कहा-"मेरे छोटे भाईके प्रति विधिने यह क्या उपाय कर दिया है ? यदि मैं किसी प्रकार पीछे लौटता हूँ, तो भी निर्भीक एवं पराक्रमी हमारे कोई भी योद्धा पीछे न हटेंगे। यदि मैं उसे मारकर यम-मन्दिर भेजता हूँ तब भी मैं अपयशरूपी महावृक्षको जल देता हूँ। (हे मन्त्रिवर, अब तुम ही ) कहो कि ( इन दोनोंमें-से ) मुझे क्या करना युक्ति-संगत होगा ? विचारशील बुधजनोंके लिए यह प्रश्न असाध्य-जैसा ही है।" इस प्रकार राजा द्वारा पूछे १० जानेपर मन्त्रीने उसके मनकी भ्रान्तिको नष्ट करते हुए (पुनः ) कहा-'हे देव, आपके लिए वही करना चाहिए, जिससे वीर-लक्ष्मी विमुख न हो तथा तुम्हारे कर-कमलोंमें विजय-लक्ष्मी चढ़ी रह सके। मैं और अधिक क्या कहूँ ? अतः आप गर्वके साथ उसे मारें।"
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