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________________ ३. ९. १२] हिन्दी अनुवाद मन्त्रिवर्ग मूढ़बुद्धि विशाखभूतिको समझाता है "आपके सहोदरका पाठक-जनों द्वारा संस्तुत सुपुत्र आपके लिए अनुकूल तम है। आप नीतिवान् हैं फिर भी उसके प्रति विमुख बुद्धि रखते हैं, (तब यही कहना होगा कि) वैरको उत्पन्न करनेवाली यह नरेन्द्र-ऋद्धि भस्म ही हो जाये ( तो अच्छा है ) । नेत्र दृष्टिके आवरणमें अन्धकार ही निरन्तर निमित्त कारण नहीं होता, मारनेमें गरल ही निरन्तर समर्थ नहीं होता, नरक ही निरन्तर अनेक दुखोंका कारण नहीं बनता, अपितु नीतिज्ञ सन्तोंने कलत्रको भी अनुपम दुखोंका निमित्त कारण बताया है। शत्रुओंको पराजित करनेवाले हे नरवर, आप न्यायमार्गमें विचक्षण हैं. अत: यशरूपी चन्द्रमासे पथिवी एवं आकाशको धवलित करनेवाले हे राजन, आपके लिए यह उचित नहीं होगा कि आप महिलाकी किसी अहितकारी इच्छाको पूर्ण करें। दुर्जनके अशुभाश्रित कथनके अनुसार प्रवृत्ति करनेवालेका अपयश होकर ही रहेगा। वह ( विश्वनन्दि ) अपने नन्दनवनमें जाकर मनोहर श्री-सौन्दर्यका सुख ले रहा है, अतः वह माँगे जानेपर भी उस ( नन्दन-वन ) १० को नहीं देगा। अरिवृन्दका दलन करनेवाले हे नरेन्द्र, स्थिर बुद्धिसे विचार तो कीजिए कि अपनेअपने मनोहर मतपर किसकी बुद्धि लुब्ध नहीं होती? अपनी प्रियतमाके वचनरूपी चाबुकसे आहत होकर आप कुपित होंगे तथा (माँगनेपर भी नन्दन-बनको) प्राप्त न करके आप शोक प्रकट करेंगे और तब यदि प्रतिपक्षी भी अपने प्रतिपक्षीकी उपेक्षा करनेवाला हो जाये, तब आप सहसा ही उसके विपक्षी होकर उसके नन्दन-वनका हरण करना चाहेंगे। घत्ता-हे गुणरत्न निधान, हे राजाओंमें प्रधान, सभी जन उसके ( विश्वनन्दि के ) चरणों में रहते हैं, तथा सेवा करते हैं । 'यह (विशाखभूति ) अपनी मर्यादा को भी वेध ( छोड़) रहा है' यह कहकर वे सभीजन उस (विश्वनन्दि ) के साथ उसी प्रकार मिल जायेंगे, जिस प्रकार कि बड़े-बड़े नद समुद्रमें मिल जाते हैं ॥४७॥ राजा विशाखभूतिको महामन्त्री कोतिको सलाह रुचिकर नहीं लग सकी हे देव ( यद्यपि ) आपने युद्धमें अन्य नरेन्द्रोंको जीत लिया है तो भी परजनों द्वारा असाध्य युवराज ( विश्वनन्दि ) के सम्मुख ( युद्धक्षेत्रमें ) आप उसी प्रकार शोभित न होंगे, जिस प्रकार किरणोंको विकीर्ण करते हुए भास्वर दिनकरके सम्मुख चन्द्रमा सुशोभित नहीं होता । अथवा दैववशात् अथवा क्रोधपूर्वक आपने किसी प्रकार युद्ध में यदि उसे परास्त भी कर दिया तो जगत्में निर्विवाद रूपसे उसी प्रकार जनापवाद फैल जायेगा, जिस प्रकार कि रात्रिमें निविड अन्धकार-समूह ५ फैल जाता है।" इस प्रकार विपाकमें रम्य बुधजनोंके कानोंके लिए रसायनके समान एवं शत्रुजनोंके अगम्य, नीतियुक्त वचन कहकर जब कीत्ति नामक वह मन्त्री चुप हो गया तब नराधिपने उत्तर दिया-"आपने जैसा कहा है, बधजनोंके लिए वही करना उचित है। किन्तु हे मन्त्रिन, ऐसा कोई उपाय बताइये, जिससे सहज ही में वह नन्दन-वन विना किसी विद्वेषके प्राप्त हो सके। स्वामीके ये वचन सुनकर महामति एवं निर्धान्त मन्त्रीने पुनः कहा- "मैं उस उपायको न तो सोच ही पाता १० हूँ और न समझ ही पाता हूँ। जो जानता हूँ, सो वह आपके सम्मुख प्रकट कर ही दिया है। अथवा सुन्दर वेशवाले हे नरेश, अब आप अपनी बुद्धिसे ही कोई उपाय कीजिए, क्योंकि पुरुषोंकी मति तो भिन्न-भिन्न होती है। भाषणमें समर्थ एवं महामतिवाला मन्त्री तो अपने मन में आये हुए विचारोंको ही प्रशस्त मानता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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