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________________ ३. ७. १४ ] हिन्दी अनुवाद ५३ महान् गुणी, लीलाओं पूर्वक पृथिवीपर भ्रमण करता हुआ, शत्रुओंका विशेष रूपसे हनन करता हुआ, वृक्ष-पंक्तिका अवलोकन करता हुआ, दुष्टजनों के मान-मर्दनके लिए कृतान्तके समान, अर्धचन्द्रके तुल्य भालवाला वह विश्वनन्दि वृक्ष-पंक्तिसे सघन एवं इन्द्रके नन्दनवनके समान प्रतिभासित होनेवाले तथा फूले हुए पुष्पों की रजसे दिशाओंको सुवासित करनेवाले उस सुन्दर वनमें कोमल तथा त्रिकालोंमें रमणीक किसी आम्रवृक्षके नीचे उज्ज्वल शिलातलके ऊपर स्थित होकर जब अपना समय व्यतीत कर रहा था । तभी किसी समय सुखके गृहस्वरूप उस नन्दन - वनको देखकर वह विशाखनन्दि जिसकी कि बन्दीजन निरन्तर स्तुति करते थे, विषादसे भर उठा। वह ( शीघ्र ही ) वहाँ पहुंचा जहाँ, १० माता विराजमान थी । वहाँ उसने दोनों हाथ जोड़कर माथा झुकाकर उससे कहा - 'हे माता, राजा विश्वभूतिके नन्दनको तो राज्यलक्ष्मीके नन्दनके समान नन्दन-वन दे दिया गया और मुझे ( छूछा ) भूधर बताया जाता है ?" पुत्रकी घुड़की सुनकर माताने अपने मनमें भली-भाँति विचार किया और करीन्द्र के समान ही दीर्घबाहुवाले विशाखभूतिके पास गयी और कहा कि "हे देव मेरे गुणालंकृत नन्दन विशाखनन्दिके लिए नन्दन-वन दे दीजिए । " १५ घत्ता - "हे देव, यदि आप असह्य मेरे प्राणोंको हृदयसे बचाना चाहते हैं, तो आज्ञाकारी, मुखर एवं अनेक लक्षणोंवाले हाथियों ( सहित इस नन्दन - वन ) को विशाखनन्दिके लिए शीघ्र ही दिला दें" ॥४५ ॥ ७ विश्वन्दिसे नन्दन - वनको छोन लेने हेतु विशाखभूतिका अपने मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श अपनी महारानीका ( उलाहनापूर्ण ) कथन सुनकर विशाखभूतिने अपने मनमें सर्वप्रथम बड़े भाई विश्वभूति महान् समृद्धि एवं सन्तवृत्तिपर विचार तो किया, किन्तु ( शीघ्र ही ) प्रतिदिन शत्रुओं द्वारा अत्यधिक सम्मानित एवं हितंकर युवराजके ऊपर उसका विकृत भाव जागृत हो उठा । वह कैसे ? ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि वायुसे घनी सन्ध्याका राग विकृत हो जाता है। योगीजनोंने सर्वत्र यह ठीक ही कहा है कि "पितामें आसक्त पुत्र भी ( समय आनेपर ) शत्रु हो जाता है ( फिर चाचा-भतीजेका तो कहना ही क्या ? ) । " इसी बीच शत्रु से भयभीत तथा 'क्या करना चाहिए' इस प्रकार आकुल- मन होकर उस राजा विशाखभूतिने स्वर्ग - अपवर्गके नियमोंको जाननेवाले अपने मन्त्रियोंको शीघ्र ही एकान्त में बुलाकर उन्हें वह अशेष ( जटिल ) वृत्तान्त कह सुनाया तथा उनसे उसका उत्तर भी पूछा । राजाकी वाणी नीति रहित है" इस प्रकार विमलतर दृष्टिसे अपने मनमें विचार कर कीर्ति १० नामक मन्त्रीने ( उस राजासे ) कहा - " वह विश्वनन्दि अपने स्वामीके कुल में शान्तिका विस्तार करनेवाला जयनी माताका नन्दन, मन, वचन एवं कायरूप त्रिकरणोंसे शुद्ध तथा भू-वल्लभ है । आपके साथ उसने कभी भी दुष्टता नहीं की । हमने गुप्तचरोंके साथ बारम्बार उस परमनापहारी ( विश्वनन्दि ) की परीक्षा स्वयं ही कर ली है । कुलक्रमके धारी उस नीतिवान् विश्वनन्दिका पराक्रम भी प्रकट है ।" घत्ता - अपनी श्रीसे सुरेन्द्रको भी पराभूत करनेवाले हे जगेश, हे नरेन्द्र, आप तो भुवनमें असाध्य हैं, फिर भी धर्मंसे पवित्र चित्तवाले उस युवराजके प्रति आपकी भावना विकृत क्यों हो रही है ? आप ही उसका कारण कहिए ?" ॥४६॥ Jain Education International ५ For Private & Personal Use Only ५ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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