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________________ हिन्दी अनुवाद २२ महेन्द्रदेवका वह जीव राजगृहके शाण्डिल्यायन विप्र के यहाँ स्थावर नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार प्रलाप करते हुए उसकी मरणावस्था आ पहुँची । वह प्राणोंसे मुक्त हो गया । वह पापाश्रयी मूढ़ जीव वहाँसे ( माहेन्द्र स्वर्ग से ) गिरा और मिथ्यात्वकी अग्नि ज्वालासे दग्ध होता हुआ, स्थावर-योनियोंके मध्य में निवास कर, चिरकाल तक अनेक दुःखों को, सहकर बड़े २. २२. १५ ] से, जिस किसी प्रकार त्रस पर्याय पाकर विविध जीवसंघातोंको धारण कर जुवाड़ी सेला-संयोग के समान दुर्लभ एवं वल्लभ मनुष्य-पर्याय पाकर पूर्वार्जित प्रचण्ड एवं अगम्य कर्मोंके कारण क्या-क्या नहीं करता रहा ? दूसरी सन्धिको समाप्ति इस प्रकार प्रवर-गुणरूपी रत्न-समूहसे भरपूर विविध श्री सुकवि श्रीधर द्वारा विरचित एवं साधु-स्वभावी श्री नेमिचन्द्र के द्वारा अनुमोदित श्री वर्धमान तीर्थंकर देवके चरितमें मृगपतिकी भवावलियों का वर्णन करनेवाला दूसरा सन्धि-परिच्छेद समाप्त हुआ । ४५ विद्याधरोंके लिए प्रियंकर, भरतक्षेत्र स्थित मगध देशके सुखकारी राजगृह नगर में शाण्डिल्यायन नामका एक विप्र रहता था, जो यज्ञ- विधानादि गुणोंका भाजन था । उसकी पारासरी Sara कान्ता थी । वह ऐसी प्रतीत होती थी, मानो साक्षात् आयी हुई गंगानदी ही हो । उन दोनों धैर्यको प्रकट करनेवाला, अपनी द्युतिसे शिखीको निर्जित करनेवाला स्थावर नामका ( वह १० माहेन्द्रदेव ) पुत्र उत्पन्न हुआ । भागवतके कथनानुसार चिरकाल तक तप करके वह पुन: मरा और ब्रह्मलोक-स्वर्गको प्राप्त हुआ। वहाँ वह दस-सागर प्रमाण आयुवाला तथा अभिनव - पावसके समान अत्यन्त मनोहर देव हुआ । जन्मके साथमें ही वहाँ होनेवाले दिव्य - आभरणोंसे प्रसाधित तथा सुर सीमन्तिनियों (देवांगनाओं ) द्वारा आराधित हुआ । धत्ता - जो विषय-वासनाका निवारण करता है तथा जो चन्द्रकिरण समान उज्ज्वल १५ नेमिचन्द्रको अपने मनमें धारण करता है, वह पापरूपी घने काजलको धोकर श्रीधरके समान भास्वर होकर अवश्य ही देव होता है ॥ ३९ ॥ आश्रयदाता नेमिचन्द्र के लिए कविका आशीर्वाद जो जिन मन्दिर में प्रतिदिन मुनिजनोंके सम्मुख व्याख्या सुनते हैं, सन्त एवं विद्वान् पुरुषोंकी कथाकी प्रस्तावना मात्रसे प्रमुदित होकर नत मस्तक हो जाते हैं, जो शम-भावको धारण करते हैं, उत्तम बुद्धिसे विचार करते हैं, जो द्वादशानुप्रेक्षाओंको भाते हैं, ऐसे हे श्री नेमिचन्द्र, इस पथिवीपर तुम्हारी उपमा किससे दी जाये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only ५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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