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द्वार १४८
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|१४८ द्वार:
सम्यक्त्व-भेद
चउसद्दहण तिलिंगं दसविणय तिसुद्धि पंचगयदोसं। अट्ठपभावण भूसण लक्खण पंचविहसंजुत्तं ॥ ९२६ ॥ छव्विहजयणाऽऽगारं छब्भावण भावियं च छट्ठाणं। इय सत्तयसट्ठिलक्खणभेयविसुद्धं च सम्मत्तं ॥ ९२७ ॥ परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि। वावन्न कुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ ९२८ ॥ सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए। वेयावच्चे नियमो सम्मद्दिट्ठिस्स लिंगाइं ॥ ९२९ ॥ अरहंत सिद्ध चेइय सुए य धम्मे य साहुवग्गे य। आयरिय उवज्झाएसु य पवयणे दंसणे यावि ॥ ९३० ॥ भत्ती पुया वन्नज्जलणं, वज्जणमवन्नवायस्स । आसायणपरिहारो, दंसणविणओ समासेणं ॥ ९३१ ॥ मोत्तूण जिणं मोत्तूण जिणमयं जिणमयट्ठिए मोत्तुं । संसारकच्चवारं चिंतिज्जतं जगं सेसं ॥ ९३२ ॥ संका कंख विगिच्छा पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । सम्मत्तस्सऽइयारा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥ ९३३ ॥ पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विज्जा सिद्धो य कवी अद्वैव पभावगा भणिया ॥ ९३४ ॥ जिणसासणे कुसलया पभावणाऽऽययणसेवणा थिरया। भत्ती य गुणा सम्मत्तदीवया उत्तमा पंच ॥ ९३५ ॥ उवसम संवेगोऽवि य निव्वेओ तह य होइ अणुकंपा। अत्थिक्कं चिय एए संमत्ते लक्खणा पंच ॥ ९३६ ॥
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