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________________ प्रवचन-सारोद्धार ५३ सरददर २38 ---- -- - १०. 56002 कोने की भिक्षा क्रमश: भिखारी, पक्षी, मत्स्यादि जलचरों को डालकर चतुर्थ कोण की भिक्षा समभाव से स्वयं खाता था। इस प्रकार १२ वर्ष तक बालतप करके अन्तिम समय में एक महीने के अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण किया। बालतप के प्रभाव से वह मरकर चमरेन्द्र बना। अवधिज्ञान से सौधर्मेन्द्र को अपने ऊपर बैठा देखकर चमरेन्द्र बड़ा क्रुद्ध हुआ और अपने अधीनस्थ देवों से पूछा अरे ! यह कौन दुष्ट है जो मेरे सिर पर पाँव रखकर बैठा है। देवताओं ने कहा-स्वामिन् ! आपके ऊपर बैठने वाला और कोई नहीं, पूर्वभव के प्रबल पुण्य से अर्जित महान् समृद्धि वाला सौधर्मेन्द्र है। यह सुनकर चमरेन्द्र और अधिक क्रुद्ध हुआ। मेरी अवज्ञा करने वाले इस दुष्टात्मा को मैं कड़ी शिक्षा दूंगा। ऐसा कहता हुआ, देवताओं द्वारा मना करने पर भी सौधर्मेन्द्र से युद्ध करने के लिये मुद्गर लेकर चल पड़ा। रास्ते में उसे विचार आया ‘सुना जाता है कि इन्द्र बड़ा शक्तिशाली है। मानो मैं उससे पराजित हो गया तो मेरी रक्षा कौन करेगा।' ऐसा सोचकर सुसुमारपुर में कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित भगवान महावीर के पास आया। प्रणामपूर्वक भगवान को निवेदन किया कि हे प्रभु ! आपके प्रभाव से मैं इन्द्र को जीतूंगा। पश्चात् एक लाख योजन प्रमाण विशाल व विकृत शरीर बनाकर चारों ओर मुद्गर घुमाता हुआ..तीव्र गर्जना करता हुआ..देवताओं को डराता हुआ सौधर्मेन्द्र के प्रति उड़ा। एक पाँव सौधर्म विमान की वेदिका पर, दूसरा पाँव सुधर्मा सभा में रखकर मुद्गर से इन्द्रस्तंभ को तीन बार ताडन किया। इससे इन्द्र महाराज क्रुद्ध हुए। अवधिज्ञान से चमरेन्द्र को जानकर क्रोध से जलते हुए, चिनगारियों से समाकुल वज्र को उसके पीछे छोड़ा। अपने पीछे आते हुए वज्र को देखने में भी असमर्थ चमरेन्द्र ने अपने वैक्रिय का उपसंहार करके वहाँ से शीघ्र ही भाग कर भगवान महावीर की शरण स्वीकार की। जैसे ही वज्र समीप . वैसे ही वह 'हे महावीर प्रभो ! आपकी शरण में हैं' बोलता हआ अपने शरीर को सक्षम से सूक्ष्म बनाकर परमात्मा के चरणों के अन्तराल में प्रविष्ट हो गया। अर्हन्त परमात्मा, अतिशय संपन्न मुनि भगवन्त आदि की निश्रा के बिना भवनपति देवों का ऊपर आगमन संभव नहीं है, ऐसा सोचकर इन्द्र महाराज अवधिज्ञान से संपूर्ण वृत्तान्त जानकर तीर्थंकर परमात्मा की आशातना न हो जाये, इस भय से शीघ्र ही मर्त्यलोक में आये और भगवान से चार अंगुल दूर स्थित अपने वज्र को पुन: खेंच लिया। परमात्मा से क्षमा याचना कर इन्द्र ने चमरेन्द्र से कहा, परमात्मा की कृपा से तुम भयमुक्त हो। इस प्रकार उ उसे आश्वस्त करके पन: भगवान को नमस्कार कर इन्द्र अपने स्थान पर लौट आये। चमरेन्द्र भी इन्द्र के चले जाने पर परमात्मा के चरणों के अन्तराल से बाहर आकर प्रणामपूर्वक प्रभु की स्तुति करके अपने स्थान पर लौट आया। ९. एक साथ एक सौ आठ का मोक्ष—इस भरतक्षेत्र में भगवान ऋषभदेव परमात्मा के निर्वाण के समय उत्कृष्ट अवगाहना वाले (५०० धनुष की काया वाले) एक सौ आठ आत्मा एक साथ मोक्ष पधारे। जैसा कि संघदासगणि ने अपने वसुदेव हिण्डी में कहा है जगतगुरु भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष न्यून एक लाख पूर्व केवली अवस्था में विचरण कर, चुतर्दशभक्तपूर्वक, दस हजार श्रमणों के साथ माघ वदी तेरस के दिन अभिजित् नक्षत्र में अष्टापद पर्वत पर निन्यानवें पुत्र व आठ पौत्र कुल १०७ आत्माओं के साथ एक समय में अष्टापद पर्वत पर निर्वाण में आग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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