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________________ प्रवचन-सारोद्धार ४७ ::.1.554००:054010064444 44200 |१३८ द्वार : आश्चर्य उवसग्ग गब्भहरणं इत्थीतित्थं अभाविया परिसा। कण्हस्स अवरकंका अवयरणं चंदसूराणं ॥८८५ ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पाओ य अट्ठसयसिद्धा। अस्संजयाण पूया दसवि अणंतेण कालेणं ॥८८६ ॥ सिरिरिसहसीयलेसु एक्केक्कं मल्लिनेमिनाहे य । वीरजिणिंदे पंच उ एगं सव्वेसु पाएणं ॥८८७ ॥ रिसहे अट्ठऽहियसयं सिद्धं सीयलजिणंमि हरिवंसो। नेमिजिणेऽवरकंकागमणं कण्हस्स संपन्नं ॥८८८॥ इत्थीतित्थं मल्ली पूया अस्संजयाण नवमजिणे। अवसेसा अच्छेरा वीरजिणिंदस्स तित्थंमि ॥८८९ ॥ -गाथार्थदश आश्चर्य-१. उपसर्ग २. गर्भापहार ३. स्त्रीतीर्थ ४. अभावित पर्षदा ५. कृष्ण का अमरकंका-गमन ६. चन्द्र-सूर्य का अवतरण ७. हरिवंश कुलोत्पत्ति ८. चमरेन्द्र का उत्पात ९. एक सौ आठ का सिद्धिगमन और १०. असंयती-पूजा-ये दश आश्चर्य अनन्तकाल में होते हैं ।।८८५-८८६ ॥ श्री ऋषभदेव, शीतलनाथ, मल्लिनाथ और नेमिनाथ के तीर्थ में एक-एक आश्चर्य घटित हुआ। भगवान महावीर के शासन में पाँच आश्चर्य हुए तथा एक आश्चर्य प्राय: सभी के तीर्थ में हुआ ।।८८७ ॥ श्री ऋषभदेव के शासनकाल में एक सौ आठ का सिद्धिगमन हुआ। शीतल जिन के तीर्थ में हरिवंश कुल की उत्पत्ति हुई। नेमिजिन के तीर्थ में कृष्ण का अमरकंकागमन हुआ। मल्लिनाथ स्त्री तीर्थंकर हुए। नौंवे सुविधिनाथ भगवान के तीर्थ में असंयती की पूजा हुई। शेष आश्चर्य भगवान महावीर के तीर्थ में हुए ।।८८८-८८९ ।। -विवेचन • आश्चर्य-जिन्हें लोक विस्मय की दृष्टि से देखते हैं, वे आश्चर्य कहलाते हैं। आ-विस्मयतश्चर्यन्ते अवगम्यन्ते जनैः इति आश्चर्याणि । वे दश हैं :१. उपसर्ग व्यक्ति की साधना/आराधना में विशेष बाधा डालने वाले सुर-नर-तिर्यंचकृत उपद्रव उपसर्ग है । यद्यपि तीर्थंकर के आस-पास सौ योजनपर्यन्त युद्ध-कलह, मारी-मरकी, दुर्भिक्ष के उपद्रव नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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