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________________ प्रवचन-सारोद्धार २७ इसी विषय को लेकर समभिरुढ़ नय शब्दनय को कहता है कि हे शब्दनय ! यदि तुम लिंगभेद व वचनभेद के कारण एक ही शब्द का अर्थ भिन्न मानते हो तो पर्यायशब्दों का अर्थभेद क्यों नहीं मानते? क्योंकि वे परस्पर भिन्न अर्थवाले हैं। इससे सिद्ध होता है कि पर्यायशब्द एकार्थक नहीं है। ७. एवंभूतनय-एवं = इस प्रकार, भूत: = प्राप्त अर्थात् यह नय पूर्व नय की अपेक्षा अधिक गहराई से विचार करता है कि यदि व्युत्पत्ति भेद से अर्थभेद माना जाता है तो यह भी मानना चाहिये कि शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ जब पदार्थ में घटित होता है तभी वह शब्द का वाच्य बनता है तथा उस शब्द के द्वारा उस अर्थ का प्रतिपादन होता है ऐसा मानने वाला नय एवंभूत नय है । इसके अनुसार किसी समय नारी के मस्तक पर आरूढ़ होकर जलाहरणादि रूप चेष्टा करने की योग्यता धारण करने वाला अर्थ “घट” नहीं कहलाता परन्तु वास्तव में घट वही कहलाता है जो इस समय नारी के मस्तक पर आरूढ़ होकर जलाहरणादि क्रिया कर रहा हो। घट का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ 'घटनात् घट:' अर्थात् नारी के मस्तक पर आरूढ़ घट की जलाहरणादि क्रिया है। जिस पदार्थ में यह क्रिया दिखाई दे रही हो वही घट है। एवंभूत नय उसी पदार्थ को घट मानता है जिसमें घट शब्द की व्युत्पत्ति घटित हो रही हो शेष घड़ों को वह घट मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वे घटशब्द के व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ से शून्य है जैसे पट । तथा घट शब्द भी वास्तव में वही है जो चेष्टावान् अर्थ का प्रतिपादन करता हो अन्यथा नहीं (वाच्यार्थ से शून्य होने के कारण)। इस प्रकार एवंभूतनय का मानना है कि किसी वस्तु के लिये किसी शब्द का प्रयोग करना तभी ठीक होगा जबकि उसमें शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ भी घटित हो रहा हो। इसके अनुसार दशविध प्राणों को धारण करने वाले नारक, तिर्यञ्च आदि रूप सांसारिक प्राणी ही जीव कहलाते हैं, 'सिद्धात्मा' नहीं, कारण जीवति-प्राणान् धारयति अर्थात् जो जीता है—दशविध प्राणों को धारण करता है वह जीव है यह व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ 'सिद्धात्मा' में नहीं घटता । 'सिद्धों' के लिये आत्मा शब्द का प्रयोग होता है क्योंकि उसका व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ उनमें घटित होता है। जैसे ज्ञान, दर्शन व सुखादि पर्याय में सतत रमण करने वाला आत्मा है और आत्मा शब्द का यह व्युत्पत्तिनिमित्त 'सिद्धात्मा' में घटित होता है ॥८४७॥ . नयों के प्रभेद . नैगम आदि के भेद से मूलनय सात हैं। इनमें से प्रत्येक की प्रभेद संख्या सौ.सौ है अत: सभी नयों की कुल प्रभेद संख्या सात सौ है। मतान्तर से • नैगम आदि के भेद से मलनय पाँच हैं, कारण शब्द. समभिरूढ व एवंभत ये तीनों ही नय शब्दपरक होने से एक हैं। पाँचों ही मूलनय के सौ...सौ प्रभेद होने से नयों के कुल पाँच सौ भेद हुए। 'अपि' शब्द नयों के अन्यभेदों का भी सूचक है। नयों के क्रमश: छ: सौ, चार सौ तथा दो सौ भेद हैं। सामान्यग्राही नैगम का संग्रह में तथा विशेषग्राही नैगम का व्यवहार में अन्तर्भाव होने से मूलनय छ: ही है। प्रत्येक के प्रभेद सौ...सौ हैं अत: कुल नय छ: सौ हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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