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प्रवचन-सारोद्धार
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अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध न होने से उपेक्षित है। यदि यह पाठ माने तो 'विगुड्' का अर्थ होगा मूत्र-पुरीष के ही अवयव। क्योंकि 'वाऽवि' में 'वा' शब्द समुच्चयार्थ है, 'अपि' शब्द एवकारार्थ है तथा क्रम की भिन्नता का सूचक है। किसी का कथन है, कि विड् अर्थात् विष्ठा और ‘पत्ति' का अर्थ प्रश्रवण होता है। जिस लब्धि के प्रभाव से मूत्र-पुरीष के अवयव सुगन्धित तथा स्व-पर का रोग शमन करने में समर्थ होते हैं वह विप्रुडौषधि लब्धि है। सूत्र सूचक होने से यहां खेल, जल्ल, केश, नखादि के अवयवों का भी ग्रहण होता है।
(३) खेलौषधि लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति का श्लेष्म सुगंधित एवं रोगनाशक होता है।
(४) जल्लौषधि लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति के कान, नाक, आँख, जीभ एवं शरीर का मैल सुगंधित एवं रोगनाशक होता है।
(५) सर्वौषधि लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति के मल-मूत्र, श्लेष्म, नाक, कान आदि का मैल, केश और नख सभी सुगन्धित एवं रोगापहारी होते हैं। ___(६) संभिन्नश्रोतो लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से शरीर के सभी प्रदेशों में श्रवण-शक्ति उत्पन्न हो जाती है अथवा जिस लब्धि के प्रभाव से पाँच-इन्द्रियों से ग्राह्य-विषय को एक ही इन्द्रिय से ग्रहण करने की शक्ति पैदा हो जाती है, अथवा जिस लब्धि से बारह योजन तक विस्तृत चक्रवर्ती के सैन्य में बजने वाले विविध वाद्यों विविध स्वरों को व्यक्ति एक ही साथ अलग-अलग करके सुन सकता
(७) अवधि लब्धि—जिस लब्धि से इन्द्रियों की सहायता के बिना मात्र आत्मशक्ति से मर्यादा में रहे हुए रूपी द्रव्यों का ज्ञान होता है।
(८) ऋजुमति लब्धि-यह मन:पर्यवज्ञान का भेद है। मनोगत भाव को सामान्य रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि ऋजुमति है। उदाहरणार्थ-कोई व्यक्ति घड़े के बारे में सोच रहा है, तो ऋजुमति अपने ज्ञान से इतना जान सकता है कि उस व्यक्ति ने घड़े का चिन्तन किया है, किन्तु वह यह नहीं जान सकता कि वह घड़ा कहाँ का है? किस द्रव्य का है? किस रंग का है? इस ज्ञान की विषय सीमा ढाई अंगुल न्यून ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव हैं।
(९) विपुलमति लब्धि-यह भी मन:पर्यवज्ञान का भेद है। यह मनोगत भावों को ग्रहण करता है, किन्तु चिन्तनीय वस्तु को अपनी सभी पर्यायों (विशेषताओं) के साथ ग्रहण करता है, जैसे किसी व्यक्ति ने घड़े का चिंतन किया, तो विपुलमति ‘इसने घड़े का चिंतन किया है' यह जानने के साथ यह भी जानता है कि इसके द्वारा सोचा हुआ घड़ा सोने का है, पाटलिपुत्रनगर का है, आज का बना हुआ है, महान् है, भीतर घर में रखा हुआ है। इस प्रकार अनेक विशेषणों से युक्त 'घट' को जानता है ।
(१०) चारण लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से मानवीय शक्ति की सीमा से परे के क्षेत्रों में भी लब्धिधारी का गमनागमन होता है ।
(११) आशीविष लब्धि—आशी = दाढ़, विष = जहर अर्थात् जिनकी दाढ़ों में भयंकर जहर होता है वे 'आशीविष' कहलाते हैं। इसके दो भेद हैं-कर्म आशीविष और जाति आशीविष ।
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