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________________ ४०६ द्वार २६९ अंजनगिरि की तरह दधिमुख गिरिओं पर भी विशाल जिन मन्दिर हैं। बावड़ियों के अन्तराल में भी दो-दो पर्वत हैं ।।१४८३ ।। विदिशा में स्थित, पद्मरागमणि के समान लाल रंग वाले इन पर्वतों का नाम 'रतिकर' है। मानो इन पर विराजमान जिन प्रतिमाओं के प्रक्षाल के जल के संपर्क से ये पर्वत लाल वर्ण के बने हों। सभी रतिकर पर्वत कोमल स्पर्श वाले तथा इन्द्रों के आवास स्थान हैं। इनकी ऊँचाई और विस्तार दस हजार योजन का तथा गहराई ढाई सौ योजन की है। इनका आकार झालर की तरह है। इन पर पूर्वोक्त परिमाण वाले जिन भवन हैं ॥१४८४-८६ ॥ दक्षिण दिशा के अंजनगिरि की पूर्वादि दिशा में क्रमश: भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुंडरीकिणी नाम की बावड़ियाँ हैं। ये बावड़ियाँ मणिमय तोरण और बगीचों से अत्यन्त रमणीय हैं। पश्चिम दिशावर्ती अंजनगिरि के चारों ओर क्रमश: नन्दिषेणा, अमोघा, गोस्तूभा एवं सुदर्शना नामक बावड़ियाँ हैं। उत्तर दिशा के 'अंजनगिरि' के चारों ओर विजया, वैजयन्ती, जयन्ति और अपराजिता नाम की चार बावड़ियाँ हैं। इन सभी बावड़ियों का परिमाण पूर्ववत् समझना चाहिये ॥१४८७-८९ ।। सभी बावड़ियाँ, दधिमुख पर्वतों का आधार हैं। इस प्रकार नन्दीश्वर द्वीप में, प्रत्येक दिशा में 'अंजनगिरि' आदि तेरह-तेरह पर्वत हैं ॥१४९० ॥ नन्दीश्वर द्वीप में चारों दिशा के कुल मिलाकर बावन पर्वत हैं। सभी पर्वतों पर जिनबिंब हैं। उनकी पूजा के लिये चारों निकाय के देवता सदा आते हैं ।।१४९१ ।। -विवेचन नन्दीश्वर = विशाल जिनमन्दिर, उद्यान, बावड़ी, पर्वत आदि अनेकविध पदार्थों की समृद्धि से संपन्न 'नन्दीश्वरद्वीप' है । यह द्वीप जंबूद्वीप से आठवाँ, गोलाकार, अत्यन्त कमनीय, देवताओं को आनन्द देने वाला है। गोलाई में इसका विस्तार १६३८४००००० योजन है। ये योजन प्रमाणांगुल से मापे जाते हैं। नन्दीश्वरद्वीप के मध्यभाग में चारों दिशा में चार ‘पर्वत' हैं। अंजनरत्नमय होने से वे 'अंजनगिरि' कहलाते हैं। पूर्व में देवरमण ये चारों पर्वत ८४ हजार योजन ऊँचे, १ हजार दक्षिण में नित्योद्योत योजन भूमि में हैं। मूल में इनका विस्तार १० पश्चिम में स्वयंप्रभ हजार योजन का है तथा न्यून होते-होते ऊपर उत्तर में रमणीय भाग में विस्तार १ हजार योजन का रह जाता है। प्रत्येक पर्वत पर विविध रत्नमय एक-एक 'सिद्धायतन' (शाश्वत जिन चैत्य) है । सिद्धायतन—चारों अंजनगिरि पर अनेकविध मणिरत्नों से निर्मित एक-एक सिद्धायतन है। जो १०० योजन पूर्व से पश्चिम की ओर लंबे, ७२ योजन ऊँचे तथा ५० योजन दक्षिण से उत्तर की ओर चौड़े हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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