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________________ प्रवचन-सारोद्धार 44444001:2000RRIDORABADODAR...... ही नहीं रखता। वैसे व्यवहारनय लोकव्यवहार में उपयोगी घट...पटादि विशेष पदार्थों को ही मानता है, सामान्य को नहीं। ४. ऋजुसूत्रनय—ऋजु अर्थात् सरल, जो नय वक्रता का त्याग करके वस्तु को सरलरूप में मानता है वह ऋजुसूत्रनय है। यहाँ वस्तु की सरलता का अर्थ है वस्तु की अतीत, अनागत व परपर्याय रूप वक्रता का त्याग करते हुए वस्तु की मात्र वर्तमानपर्याय व स्वपर्याय का बोध करानेवाला नय ऋजुसूत्रनय है। इसे जुश्रुत भी कहते हैं। ऋजु अर्थात् अतीत, अनागत व परपर्यायरूप वक्रता से रहित श्रुत अर्थात् बोध, सरल अर्थात् वर्तमान पर्याय का बोध करने वाला नय “ऋजुश्रुत” है। इस नय का मन्तव्य है कि अतीतवस्तु अविद्यमान होने से तथा भावी वस्तु असत् होने से वर्तमान में उपयोगी नहीं बन सकती अत: वे शून्यवत् हैं तथा ऐसी वस्तु प्रमाण का विषय भी नहीं बन सकती अत: वह ‘वस्तु' भी नहीं कहला सकती। वस्तु वही कहलाती है जो अर्थक्रिया समर्थ हो तथा प्रत्यक्षादि प्रमाण का विषय हो। अतीत, अनागत वस्तु में दोनों ही बातें न होने से वह वस्तुरूप नहीं है। तथा परवस्तु भी अपने लिये परधन की तरह उपयोगशून्य (निष्प्रयोजन) होने से वास्तव में तो असत् ही है। . ऋजुसूत्रनय वर्तमानवस्तु का ग्राहक होने के साथ भिन्न लिंग व भिन्न वचनवाली वस्तु को भी एक ही मानता है अर्थात् स्त्रीलिंग वाच्य पदार्थ से पुरुष व नपुंसक लिंग वाच्य पदार्थ को तथा एकवचन वाच्य पदार्थ से द्विवचन व बहुवचन वाच्य पदार्थ को भिन्न नहीं मानता। यथा तटः, तटी, तटम् शब्द क्रमश: पुल्लिग, स्त्रीलिंग व नपुंसकलिंग हैं। इन तीनों में लिंग भेद होने पर भी तटरूप अर्थ में कोई भेद नहीं है। तटरूप अर्थ तो तीनों का एक ही है। वैसे गुरु...गुरू... गुरवः तथा गोदो-ग्राम, आपो-जलम्, दारा:-कलत्रम् आदि में वचनभेद से अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जहाँ तक निक्षेप का सम्बन्ध है ऋजुसूत्रनय, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव चारों ही निक्षेपों को मानता है। ५. शब्दनय-वस्तु का प्रतिपादन करने वाला नय शब्दनय है। शब्द के वाच्य अर्थ को ही वास्तविक मानने वाला नय शब्दनय है। यह नय लाक्षणिक व व्यंग्य अर्थ को वास्तविक नहीं मानता। इसका अपरनाम 'सांप्रतनय' भी है। यह नय 'ऋजुसूत्रनय' की तरह भूत व भावी वस्तु की उपेक्षा करने वाला तथा वर्तमान वस्तु को वास्तविक मानने वाला है। वर्तमान में भी स्वकीय वस्तु को ही वास्तविक मानने वाला है। सांप्रत अर्थात् वर्तमान वस्तु का आश्रयण करने से यह नय सांप्रत कहलाता है। निक्षेप के सम्बन्ध में यह नय भावनिक्षेप को ही मान्यता देता है। नाम, स्थापनादि को नहीं मानता। नाम-स्थापनादि का निराकरण करने में इसका तर्क है किप्रतिज्ञा-नाम, स्थापना व द्रव्यरूप घट, वस्तुत: घट नहीं है। हेतु—क्योंकि घट के कार्य को करने में वह असमर्थ है। उदाहरण—जो घट का कार्य करने में असमर्थ है वह घट नहीं है जैसे पट । उपनय—वैसे नाम, स्थापनादिरूप घट भी घट का कार्य करने में असमर्थ हैं। निगमन–अत: ये घटरूप नहीं है। नाम, स्थापना व द्रव्यरूप घट में न तो घड़े का आकार दिखाई देता है न जलाहरण या जलधारणरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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