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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३९७ (स) जलस्पर्शिका—बूंदाबांदी वाली वर्षा । ऐसी वर्षा में सात दिन के पश्चात् वातावरण अप्कायमय बन जाता है ।।१४५०-५१ ।।। संयमघाती अस्वाध्याय का ४ प्रकार का परिहार (i) द्रव्यत:-धूवर, सचित्तरज व वर्षा ये तीनों अस्वाध्याय के कारण हैं। (iii) क्षेत्रत:-जितने क्षेत्र में ये तीनों गिरे उतने क्षेत्र में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। (iii) कालत:-जितने समय तक गिरे, उतने समय तक अस्वाध्याय । (iv) भावत:-धूवर, सचित्तरज और वर्षा के गिरते हुए, गमनागमन, पडिलेहण, बोलना आदि कुछ भी करना नहीं कल्पता । श्वासोच्छ्वास व पलक झपकाये बिना जीवन चल नहीं सकता अत: इन क्रियाओं की छूट है। निष्कारण शेष सभी क्रिया करना निषिद्ध है। ग्लान आदि का कार्य हो तो यतनापूर्वक हाथ, आँख व अंगुली के इशारे से सूचित कर सकते हैं। बोलने की आवश्यकता हो तो मुंहपत्ति के उपयोगपूर्वक बोलना चाहिये। बाहर जाना आवश्यक हो तो वर्षाकल्प ओढ़कर जाना चाहिये ॥१६५२॥ २. औत्पातिक - प्राकृतिक व अप्राकृतिक उत्पात के कारण होने वाला अस्वाध्याय । इसके पाँच भेद हैं। (i) पांशुवृष्टि-पांशु = अचित्तरज की वर्षा होना । जब तक ऐसी वर्षा हो, दिशायें धूलिधूसरित दिखाई दे तब तक सूत्र सम्बन्धी अस्वाध्याय होता है। ऐसी वर्षा में गमनागमन हो सकता है। (ii) मांसवृष्टि-मांस के टुकड़ों की वर्षा हुई हो तो एक अहोरात्र का अस्वाध्याय होता है। (iii) रुधिरवृष्टि रक्त बिन्दु की वर्षा हुई हो तो एक अहोरात्र का अस्वाध्याय होता है। (iv) केशवृष्टि—केश की वर्षा हुई हो तो जहाँ तक हो वहाँ तक अस्वाध्याय होता है। (v) शिलावृष्टि-ओलावृष्टि, पत्थरों की वर्षा जहाँ तक हो वहाँ तक अस्वाध्याय होता है। पांशु -धुंए जैसे वर्ण वाली अचित्तरज पांशु कहलाती है। धुंए जैसी व कुछ पीलापन लिये हए ऐसी अचित्त रज पांश है। रजोद्घात-दिशायें धूलि धूसरित हो जाने से चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है, वह रज-उद्घात कहलाता है। वायु सहित या वायु रहित दोनों ही प्रकार की पांशुवृष्टि व रज उद्घात में जब तक धूल गिरती है तब तक अस्वाध्याय रहता है ॥१४५३-५४ ॥ ३. सदैवम्-देवकृत अस्वाध्याय । गान्धर्वनगर, दिग्दाह, विद्युत्, उल्का, गर्जित, यूपक व यक्षादीप्त आदि देवकृत अस्वाध्याय हैं। (i) गान्धर्वनगर-चक्रवर्ती आदि के नगर में उपद्रव की सूचना करने वाला संध्या काल में नगर के ऊपर नगर जैसा ही जो दूसरा नगर दिखाई देता है वह 'गान्धर्वनगर' है। (ii) दिग्दाह-दिशा विशेष में मानो कोई महानगर जल रहा हो ऐसा प्रकाश दिखाई देना जिसके नीचे अंधकार हो दिग्दाह कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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