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प्रवचन-सारोद्धार
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सम्यक्दर्शनी जैनमुनि की तरह जिनमतानुसारी होने से यह नय सम्यग्दृष्टि ही माना जायेगा तो आप इसे मिथ्यादृष्टि कैसे कहते हो?
उत्तर-आपका कथन अयुक्त है क्योंकि यह नय जिनमतानुसार नहीं है कारण यह सामान्य और विशेष को परस्पर सर्वथा भिन्न मानता है। यह नय गुण-गुणी, अवयव-अवयवी और क्रिया-कारक का अत्यन्त भेद मानता है। न कि जैन साधु की तरह इनमें भेदाभेद मानता है। अत: यह नय सम्यग्दृष्टि न होकर कणाद की तरह मिथ्यादृष्टि ही है। यद्यपि कणाद ने पदार्थों की व्यवस्था द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक नय के आधार पर की है तथापि वे द्रव्य (सामान्य) व पर्याय को सर्वथा भिन्न मानते हैं जबकि जिन प्रवचन सर्वत्र भेदाभेद को मानता है। एकान्त भेद व एकान्त अभेद जिनप्रवचन के अनुसार मिथ्या है। कहा है
“जो सामान्य और विशेष को परस्पर सर्वथा भिन्न मानता है, वह कणाद की तरह मिथ्यादृष्टि है। यद्यपि कणाद ने पदार्थ की व्यवस्था द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक दो नयों के आधार पर ही की है तथापि वह मिथ्यादृष्टि है, कारण वह दोनों नयों को अपने-अपने विषय में प्रधान मानते हुए परस्पर निरपेक्ष मानता है।"
२. संग्रहनय-वस्तुगत विशेषों का परित्याग करते हुए समस्त जगत को सामान्य रूप से स्वीकार करने वाला नय संग्रहनय है। संग्रहनय सामान्य का ही अस्तित्व स्वीकार करता है। उसकी दृष्टि में सामान्य से भिन्न विशेष का कोई अस्तित्व नहीं है सामान्य से भिन्न विशेष मानने वालों के प्रति उसका प्रश्न है कि विशेष सामान्य से भिन्न है या अभिन्न ?
यदि प्रथमपक्ष माने (विशेष सामान्य से भिन्न है) तो पदार्थ से भिन्न होने के कारण आकाशकुसुम की तरह विशेष का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। यदि दूसरा पक्ष मानें तो विशेष भी सामान्य रूप ही सिद्ध होगा। यथा
प्रतिज्ञा—विशेष पदार्थ रूप हैं। हेतु-क्योंकि वे पदार्थ से अभिन्न हैं।
उदाहरण-जो जिससे अभिन्न है वह वही है, जैसे पदार्थ का अपना स्वरूप । यहाँ भी विशेष पदार्थ से अभिन्न है।
पुन: पदार्थ से भिन्न विशेष का साधक कोई प्रमाण भी तो नहीं है अत: विशेष अतिरिक्त पदार्थ है ऐसा आग्रह कदापि नहीं रखना चाहिये। विशेष भेदरूप (अभावरूप) है और अभाव का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण भाव का ग्राहक है क्योंकि उसका उत्पादक भावपदार्थ है अत: वह उसी को ग्रहण करता है, अभाव को नहीं। अभाव तुच्छरूप होने से प्रत्यक्ष का उत्पादक नहीं हो सकता अत: प्रत्यक्ष अभाव का ग्राहक नहीं हो सकता। यदि अनुत्पादक पदार्थों का भी प्रत्यक्ष माना जाये तो विश्व के सभी पदार्थों के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी और इस प्रकार द्रष्टा अनायास ही सर्वदर्शी बन जायेंगे। ऐसा मानना अनिष्टापत्तिरूप है अत: यह सिद्ध हुआ कि प्रत्यक्ष भावपदार्थ का ही ग्राहक है और वह भाव सर्वत्र समान है इसलिये प्रत्यक्ष से सामान्य का ही ग्रहण होता है, विशेष का नहीं। अनुमानादि से
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