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________________ द्वार २६० ३७४ संयमस्थान वाला कण्डक बनता है। फिर अनन्त भाग वृद्ध संयमस्थान वाले कण्डक से अन्तरित असंख्यात भाग वृद्ध संयमस्थानों वाला कण्डक है। तत्पश्चात् उन दोनों से अन्तरित संख्यात भाग वृद्ध संयमस्थान वाले कण्डक आते हैं। पुन: उन तीनों से अन्तरित उत्तरोत्तर संख्यात गुणवृद्ध संयमस्थान वाले कण्डक होते हैं। पश्चात्, संख्यात गुणवृद्ध कण्डक के अन्तिम संयमस्थान की अपेक्षा पूर्वोक्तरीत्या अनन्तभाग वृद्ध कण्डक प्रमाण संयमस्थान हैं। उनके बाद उनसे व्यवहित असंख्यात भाग वृद्ध संयमस्थान, फिर दोनों से व्यवहित संख्यात भाग वृद्ध संयमस्थानों का कण्डक आता है। तदनंतर क्रमश: आगत अनन्त भाग वृद्ध संयमस्थानवर्ती अविभाज्य भागों को असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों से गुणा कर प्राप्त संख्या को पूर्वोक्त कण्डक में मिलाने से जो संख्या आती है, वह असंख्यात गुण-वृद्धि का प्रमाण है। इस प्रकार अनन्तभाग वृद्ध संयमस्थान वाले कण्डक के पश्चात् तुरन्त असंख्यात गुणवृद्ध संयमस्थान आता है। तत्पश्चात पूर्वक्रमानुसार कण्डक प्रमाण अनन्तभाग वृद्ध संयमस्थान । अनन्तभागवृद्ध संयमस्थानों से अन्तरित कण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्ध संयमस्थान..दोनों से अन्तरित कण्डक प्रमाण संख्यात भाग वृद्ध संयमस्थान..पूर्वोक्त तीनों से अन्तरित कण्डक प्रमाण संख्यात गुण-वृद्ध संयमस्थान फिर दूसरा असंख्यात गुणवृद्ध संयमस्थान आता है । इसके बाद इसी क्रम से पूर्वोक्त चारों से व्यवहित असंख्यातगुणवृद्ध . कण्डक प्रमाण संयमस्थान आते हैं। पूर्वोक्त असंख्यातगुणवृद्ध संयमस्थान से आगे पूर्वोक्तरीत्या क्रमशः अनन्तभागवृद्ध असंख्यातभागवृद्ध, संख्यातभागवृद्ध, संयमस्थानों से अन्तरित कण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्ध संयमस्थान आते हैं। अन्त्य अनन्तभागवृद्ध संयमस्थानवर्ती प्रदेशों से अनन्तगुण अधिक संख्या वाला संयमस्थान अनन्तगुण वृद्ध कहलाता है। तत्पश्चात् क्रमश: अनन्तभागवृद्ध कण्डक..एक असंख्यातभाग वृद्ध संयमस्थान...अनन्तभागान्तरित असंख्यातभाग वृद्ध संयमस्थानों का कण्डक...इन दोनों से व्यवहित संख्यातभागवृद्ध संयमस्थानों का कण्डक....पूर्वोक्त तीनों से अन्तरित संख्यातगुणवृद्ध संयमस्थानों का कण्डक....चारों से व्यवहित असंख्यात गुणवृद्ध संयमस्थानों वाला कण्डक, तत्पश्चात् दूसरा अनन्तगुणवृद्ध संयमस्थान आता है। _ इस प्रकार पूर्वोक्त क्रमानुसार मूल से लेकर यहाँ तक सभी संयमस्थानों का पुन:-पुन: कथन तब तक करते रहना चाहिये जब तक कि अनन्तगुणाधिक संयमस्थान एक कण्डक प्रमाण नहीं बन जाते । पश्चात् अनन्तगुणवृद्ध संयमस्थानों से आगे पूर्वोक्तरीति से पुन: अनन्तभाग वृद्ध...तदन्तरित असंख्यातभागवृद्ध...दोनों से अन्तरित संख्यातभागवृद्ध...तीनों से अन्तरित संख्यातगुणवृद्ध...पूर्वोक्त चारों से व्यवहित असंख्यात गुणवृद्ध संयमस्थानों वाला कण्डक कहना चाहिये। इसकी पूर्णाहुति के साथ षट्स्थानक पूर्ण हो जाता है, क्योंकि आगे अनन्तगुणवृद्धिवाला संयमस्थान नहीं मिलता। इस प्रकार एक षट्स्थानक में असंख्यात कण्डक होते हैं और संयमस्थान के कुल मिलाकर ऐसे असंख्य लोकाकाश-प्रदेश प्रमाण षट्स्थानक होते हैं। कहा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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