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२६० द्वार :
वुड्डी वा हाणी वा अनंत अस्संख संखभागेहिं ।
वत्थूण संख अस्संखणंत गुणणेण य विहेया ॥ १४१८ ॥ -गाथार्थ
षड्स्थान वृद्धि - हानि - वस्तुओं की वृद्धि या हानि अनंत, असंख्यात और संख्यात भाग के द्वारा तथा संख्याता, असंख्याता और अनन्ता गुण के द्वारा जानी जाती है ॥ १४१८ ॥
-विवेचन
हानि के प्रतिपादक
(i)
अनन्तभाग हानि
(iv)
संख्यातगुण हा
वृद्धि के प्रतिपादक
(i)
(iv)
किसी भी पदार्थ की हानि - वृद्धि को समझने के छ: प्रकार हैं और वे ही छ: प्रकार षट्स्थानक कहलाते हैं । षट्स्थान में ३ स्थानों की हानि - वृद्धि भाग से व ३ स्थानों की हानि - वृद्धि गुणाकार से होती है । भागाकार का क्रम है अनन्त, असंख्यात और संख्यात । गुणाकार का क्रम है संख्यात, असंख्यात व अनंत जैसे—
अनन्तभाग वृद्धि
षट्स्थान- वृद्धि हानि
(ii)
(v)
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द्वार २६०
असंख्यात भाग हानि
असंख्यातगुण हानि
(ii)
असंख्यात भाग वृद्धि असंख्यातगुण वृद्धि
(iii) संख्यात भाग वृद्धि (vi) अनन्तगुण वृद्धि ।
संख्यातगुण वृद्धि
(v)
सुगम होने से इन्हें सर्वविरति के विशुद्धि स्थानों का उदाहरण देकर समझाया जाता है— देशविरति के सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि स्थान की अपेक्षा सर्वविरति का सर्व जघन्य विशुद्धि स्थान अनंत गुण अधिक विशुद्धि वाला होता है । षट्स्थानक में सर्वत्र अनन्त गुण अधिक का अर्थ है जीवों की अनंत संख्या से गुणा करने पर जितनी संख्या होती है उतना अधिक अर्थात् सर्वोत्कृष्ट देशविरति के अध्यवसाय स्थानगत निर्विभाग भागों को सर्वजीव की अनंतसंख्या से गुणा करने पर जो संख्या आती है उतनी संख्या केवली की बुद्धि से निर्विभागीकृत सर्वविरति के सबसे जघन्य विशुद्धि स्थान की है । इसे असत् कल्पना के द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है- -माना कि देशविरति के पर्याय १०००० हैं और सर्व जीवों की संख्या १०० है । पर्याय संख्या १०००० और जीव संख्या १०० को परस्पर गुणा करने पर १०००००० (दस लाख) पर्याय होते हैं । ये सर्वविरति के सर्व जघन्य संयम स्थान की पर्यायें हैं । द्वितीय संयम-स्थान इससे अनन्त भाग अधिक विशुद्धियुक्त पर्याय वाला है । तृतीय संयम स्थान इससे अनन्तभाग अधिक विशुद्धियुक्त पर्याय वाला है ।
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(iii) संख्यात भाग हानि (vi) अनन्तगुण हानि ।
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