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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३२५ तिग संजोग दसण्हं भंगसया एक्कवीसई सट्ठा। चउसंजोगप्पणगे चउसट्ठि सयाण असियाणि ॥१३४७ ॥ सत्तत्तरी सयाइं छहत्तराई तु पंचमे हुंति। उत्तरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सव्वगं ॥१३४८ ॥ सोलस चेव सहस्सा अट्ठ सया चेव हुंति अट्ठहिया। एसो वयपिंडत्यो दंसणमाई उ पडिमाओ ॥१३४९ ।। तेरसकोडिसयाइं चुलसी इजुयाइं बारस य लक्खा। सत्तासीई सहस्सा दो य सया तह दुरुत्ता य ॥१३५० ॥ -गाथार्थअणुव्रतों के भांगे—दो प्रकार के, आठ प्रकार के, बत्तीस प्रकार के, सात सौ पैंतीस प्रकार तथा सोलह हजार आठ सौ आठ प्रकार के व्रतधारी होते हैं॥१३२२ ।। विरत-अविरत के भेद से दो प्रकार के, त्रिविध आदि के भेद से आठ प्रकार के, तथा प्रत्येक व्रत को छ: से गुणा करके उसमें दो जोड़ने से बत्तीस प्रकार के होते हैं ।।१३२३ ।। योगों के लिये तीन का अंक तीन बार, दो का अंक तीन बार तथा एक का अंक तीन बार लिखना होता है। करण के लिये क्रमश: तीन, दो, और एक के अंकों को तीन बार लिखना होता है ॥१३२४॥ __मन, वचन और काय रूप तीन योगों के करने, कराने और अनुमोदन करने रूप तीन करणों के साथ परस्पर एक संयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भांगों के सात सप्तक बनते हैं। इन सात सप्तकों के कुल मिलाकर उनपचास भांगे होते हैं ।।१३२५ ॥ प्रथम भांगे में एक भेद पश्चात् तीन भागों में तीन-तीन भेद, पश्चात् दो भागों में नौ-नौ भेद, पश्चात् एक में तीन और अन्तिम दो में पुन: नौ-नौ भेद होते हैं। इन सभी को तीन काल से गुणा करने पर एक सौ सैंतालीस भांगे होते हैं ॥१३२६ ॥ एक सौ सैंतालीस भेदों को पाँच अणुव्रतों के साथ गुणा करने पर सात सौ पैंतीस भेद होते हैं। ये भेद श्रावक के व्रत ग्रहण काल से सम्बन्धित समझना चाहिये ॥१३२७ ।। जिसने प्रत्याख्यान के एक सौ सैंतालीस भांगों को अच्छी तरह समझ लिया है वही प्रत्याख्यान में कुशल है। शेष को अकुशल समझना चाहिये ॥१३२८ ॥ द्विविध, त्रिविध आदि छ: भांगे हैं। उनके भेदों का क्रम इस प्रकार है। पहिले में एक, दो में तीन, एक में दो और दो में छ:-छ: भेद होते हैं। इस प्रकार कुल इक्कीस भेद होते हैं ॥१३२९ ॥ सूत्र में श्रावकों के एक व्रत के जो छ: भांगे बताये हैं, उन्हीं भांगों की पदवृद्धि करते हुए सात से गुणा करके छ: जोड़ने पर भांगों की कुल संख्या आती है ॥१३३० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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