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द्वार २२४
५१ से ७० समय जितना काल बीत जाने पर जीव अन्तरकरण करता है अनिवृत्तिकरण के काल में कर्म का उदय १ समय का एवं बंध अन्त: कोड़ाकोड़ी का होता है। भोग्य-कर्मों को छोड़कर उनसे आगे व्यवस्थित कर्मों को यदि उदयावलिका से रिक्त न किया जाये तो वन में लगे दावानल की तरह कर्मों का कभी अन्त नहीं होगा। जैसे दावानल को बुझाने के लिये जलते हुए वृक्ष के समीपवर्ती दो-तीन वृक्षों को छोड़कर आगे के वृक्षों को काटना पड़ता है, वैसे अनिवृत्तिकरण के संख्यातवें भाग को छोड़कर शेष ७६ से १०० समय की कर्म स्थिति को जीव अपने विशुद्ध अध्यवसायों के द्वारा साफ करता है तथा मिथ्यात्व के दलिकों को दो भागों में बाँटता है। यही अन्तरकरण है।
• एक अन्तरकरण से पूर्व भोग्य-भाग जिसे लघुस्थिति या प्रथम स्थिति कहते हैं।
दूसरा अन्तरकरण से पश्चात् भोग्य-भाग जिसे बड़ी स्थिति या द्वितीय स्थिति कहते हैं। इनकी स्थापना इस प्रकार है ? प्रथम स्थिति अर्थात् नीचे की स्थिति में मिथ्यात्व के दलिकों का वेदन होने से यहाँ जीव मिथ्यादृष्टि ही होता है।
__ समझने के लिये—७१ से ७५ समय की प्रथम स्थिति है। • मध्य में ७६ से १०० समय का अन्तरकरण है और . • १०१ समय से १००० समय तक की बड़ी स्थिति है।
लघु स्थिति के प्रथम समय में वर्तमान जीव, वहाँ रहे हुए मिथ्यात्व के दलिकों को उदय, उदीरणा द्वारा भोगकर क्षीण करता है। तत्पश्चात् अन्तरकरण-काल में भोगने लायक दलिक के दो भाग करके, . क्रमश: प्रथम और द्वितीय स्थिति में डालता है। इससे अन्तरकरण काल, कर्म दलिकों से सर्वथा शून्य हो जाता है। अन्तरकरण के दलिकों के प्रक्षेप का क्रम-बध्यमान कर्म दलिक दूसरी स्थिति में तथा उदीयमान कर्म दलिक प्रथम स्थिति में प्रक्षिप्त किये जाते हैं, किन्तु जिस कर्म का बंध और उदय दोनों चल रहा है, उसके दलिक दोनों स्थितियों में डाले जाते हैं। मिथ्यात्व मोह का बंध और उदय दोनों चलता है। अत: उसका अन्तरकरण सम्बन्धी दलिक दोनों स्थितियों में डाला जाता है। साथ ही बड़ी स्थिति में रहा हुआ दलिक उपशान्त हो जाता है। (उपशांत अर्थात् कुछ समय के लिये फल देने में अक्षम)। इस प्रकार प्रथम स्थितिगत कर्मों का भोग, अन्तरकरण के दलिकों का प्रथम-द्वितीय स्थिति में प्रक्षेप एवं द्वितीय स्थितिगत कर्म का उपशम-इन तीनों का क्रम प्रथम स्थिति के अंतिम समय तक चलता है। इस स्थिति में वर्तमान जीव अन्तरकरण काल में भोग्य-दलिकों को साफ करने का काम भी करता है। अत: यह अन्तरकरण क्रियाकाल भी कहलाता है।
जब जीव प्रथमस्थिति के अंतिम समय में प्रवेश करता है, तब प्रथमस्थिति क्षय हो जाती है और अन्तरकरणगत दलिक अन्यत्र निक्षिप्त हो जाते हैं तथा द्वितीय स्थितिगत दलिक सर्वथा उपशान्त हो जाते
न के अंतिम समय को पूर्ण कर, जब आत्मा अन्तरकरण के प्रथम समय में प्रवेश करता है, तब जैसे बंजर भूमि को पाकर आग स्वत: बुझ जाती है, वैसे अन्तरकरण रूपी बंजर भूमि को प्राप्त कर मिथ्यात्वरूपी आग स्वत: शान्त हो जाती है और अन्तरकरण के प्रथम समय में जीव को उपशम-सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। (अन्तरकरण की प्रथमस्थिति में वर्तमान जीव मिथ्यात्व का वेदक होने से निश्चित रूप से मिथ्यात्वी है। जब तक अन्तरकरण है, तब तक उपशम सम्यक्त्व है।)
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