SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वार २१७ २७६ ३. मिश्र - सात कर्म का बंध होता है। तथाविध स्वभाव के कारण इस गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता। ४. अविरति - सात या आठ (पूर्ववत् समझना) ५. देशविरति - सात या आठ (पूर्ववत् समझना) ६. सर्वविरति -- सात या आठ (पूर्ववत् समझना) ७. अप्रमत्त - सात या आठ कर्म का बंध। (कारण पूर्ववत्) ८. अपूर्वकरण - सात कर्म का बंध । इस गुणस्थान में परिणाम अतिविशुद्ध होने से आयुकर्म का बंध नहीं होता। ९. अनिवृत्तिकरण -- सात कर्म का बंध (कारण पूर्ववत्) । १०. सूक्ष्मसंपराय -- छ: कर्म का बंध । मोहनीय व आयु का बंध इस गुणस्थान में नहीं होता, कारण मोहनीय कर्म के बंध का कारण बादर कषाय है जो कि यहाँ नहीं हैं तथा आयुबंध का कारण शुद्धाशुद्ध परिणाम हैं वे भी यहाँ नहीं हैं, यहाँ तो जीव के परिणाम अतिविशुद्ध होते हैं। ११. उपशान्तमोह --- इस गुणस्थान में एक सातावेदनीय का ही बंध होता है। १२. क्षीणमोह - पूर्ववत् समझना। १३. सयोगी - पूर्ववत् समझना। १४. अयोगी - अबंधक है। बंध का कोई कारण नहीं होने से। गुणस्थान में उदय व सत्ता मिथ्यात्व, सास्वादान, मिश्र, अविरति, देशविरति, सर्वविरति, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसंपराय इन दसों ही गुणस्थान में आठों कर्म का उदय व सत्ता होती है। उपशान्तमोह गुणस्थान में उदय सात का व सत्ता आठ की होती है। कारण इस गुणस्थान में मोहनीय उपशान्त हो जाने से उसका उदय नहीं होता पर सत्ता में तो रहता ही है। क्षीणमोह गुणस्थान में उदय व सत्ता दोनों ही सात कर्म की ही है। कारण यहाँ मोहनीय का सर्वथा क्षय हो जाता है। सयोगी गुणस्थान में उदय व सत्ता दोनों ही चार अघाती कर्म की होती है। कारण यहाँ चार घाती कर्म सर्वथा क्षय हो जाते हैं। अयोगी में भी सयोगी की तरह ही चार अघाती कर्म का उदय व सत्ता होती है। गुणस्थान में उदीरणा मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरति, देशविरति व सर्वविरति गुणस्थान में निरन्तर आठों ही कर्म की उदीरणा होती रहती है। जब वर्तमान भव की आयु आवलिकामात्र शेष रहती है तब आयु के सिवाय सात कर्म की ही उदीरणा होती है, कारण उस समय उदयावलिका से बाहर कोई दलिक ही नहीं होता तो उदीरणा का प्रश्न ही नहीं उठता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy