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________________ २२८ "सभी संस्कार क्षणिक हैं और जो क्षणिक हैं उनमें क्रिया नहीं हो सकती । क्षणिक पदार्थों का उत्पन्न होना ही क्रिया है और कारण भी वही है। अक्रियावादी के ८४ भेद हैं। ये जीव, अजीव, आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा व मोक्ष सात ही तत्त्व मानते हैं । इन सात तत्त्वों के स्वतः और परतः दो ही विकल्प होते हैं । नित्य और अनित्य ये दो विकल्प नहीं होते। कारण नित्य अनित्य धर्मरूप है और धर्म, धर्मी के बिना नहीं रह सकता अतः उन्हें मानने पर आत्मारूप धर्मी अगत्या मानना होगा। वह अक्रियावादी को इष्ट नहीं है । अक्रियावादी में पूर्वोक्त ५ वादियों के अतिरिक्त एक यदृच्छावादी और है। इस प्रकार ६ हैं।” 1 द्वार २०६ (iv) यदृच्छावादी - यदृच्छावादी वे कहलाते हैं जो पदार्थों के कार्य-कारण भाव की व्यवस्था को अनियमित मानते हैं। उनका मानना है कि बिच्छू, बिच्छू से भी पैदा होता है और गोबर से भी होता | आग, आग से पैदा होती है वैसे अरणि की लकड़ी से भी पैदा होती है । धूम, धूम से होता है वैसे आग और आर्द्र लकड़ी के संयोग से भी उत्पन्न होता है। केला, पौध से भी होता है और बीज से भी । वट आदि बीज से होते हैं वैसे शाखा से भी उत्पन्न होते हैं। इससे सिद्ध है कि वस्तुओं का कार्यकारण भाव प्रतिनियत नहीं है। किसी से कुछ भी हो सकता है । बुद्धिमान व्यक्ति जैसी वस्तु है उसे वैसी ही मानते हैं। विपरीत मानकर व्यर्थ का क्लेश नहीं करते। कालादि ६ वादियों के मतानुसार जीवादि सात तत्त्वों के स्वतः व परत: इन दो विकल्पों के ७ × ६ × २ = ८४ अक्रियावादी के भेद हैं। चार्ट पृष्ठ २२९ पर देखें । बोलने का तरीका १. अस्ति जीव: स्वत: कालतः २. अस्ति जीवः परतः कालतः ३. अस्ति जीवः स्वतः यदृच्छातः ४. अस्ति जीवः परतः यदृच्छातः ७. अस्ति जीवः स्वतः नियते ८. अस्ति जीवः परतः नियतेः ९. अस्ति जीवः स्वतः ईश्वरात् १०. अस्ति जीवः परतः ईश्वरात् ११. अस्ति जीवः स्वतः आत्मनः १२. अस्ति जीवः परतः आत्मनः ५. अस्ति जीवः स्वतः स्वभावतः ६. अस्ति जीवः परतः स्वभावतः भी १२-१२ भेद होते हैं। अतः जीवादि जैसे जीव पद के १२ भेद होते हैं वैसे अजीवादि ६ ७ के १२-१२ भेद होने से अक्रियावादी के कुल मिलाकर १२ x ७ = ८४ भेद हुए ॥११९४-११९८ ।। ३. अज्ञानवादी के ६७ भेद-कुत्सित ज्ञान द्वारा व्यवहार करने वाले अज्ञानी हैं। ये अज्ञानपूर्वक किये गये कर्मबंध को विफल मानते हैं। इनका मानना है कि ज्ञान होना अच्छा नहीं है। ज्ञान होगा तो परस्पर विवाद होगा जिससे राग-द्वेष पैदा होंगे और भवभ्रमण बढ़ेगा। जैसे किसी ने वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करते हुए अन्यथा बात कह दी। यह सुनकर दूसरा ज्ञानी अहंकार पूर्वक अपने ज्ञान की महत्ता बताने के लिये उससे विवाद करेगा। जिससे परस्पर तीव्र तीव्रतर राग-द्वेष व अहंकार बढ़ेगा। इससे भयंकर कर्मों का बंध होगा व भवभ्रमण बढ़ेगा। इससे अज्ञान ही श्रेष्ठ है। अज्ञान की स्थिति में न राग-द्वेष अहंकार पैदा होता है और न कर्मबंध ही होता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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