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प्रवचन-सारोद्धार
-विवेचन श्रुत में सम्यक्त्व-श्रुत की अपेक्षा से जो साधु १० पूर्व से लेकर १४ पूर्व तक का ज्ञान रखता हो वह निश्चय से सम्यक्त्वी होता है। कुछ न्यून १० पूर्वी को सम्यक्त्व होता भी है और नहीं भी होता। मति अज्ञान और विभंग ज्ञान में निश्चय से मिथ्यात्व होता है। क्योंकि मिथ्यात्व के कारण से ही तो मतिज्ञान एवं अवधिज्ञान विपरीत (मति अज्ञान व विभंग ज्ञान) बनते हैं। मन:पर्यवी और केवलज्ञानी को मिथ्यात्व नहीं होता ॥८०९ ।।
११४ द्वार:
चातुर्गतिक निर्गन्थ
चउदस ओही आहारगावि मणनाणि वीयरागावि । हंति पमायपरवसा तयणंतरमेव चउगइया ॥८१० ॥
-विवेचननिग्रंथ का चार गति में गमन१. चौदह पूर्वधारी २. आहारक-लब्धिधारी
(कुछ आत्मा १४ पूर्वी होते हुए भी आहारक-लब्धिधारी नहीं होते अत: इनका अलग से ग्रहण किया गया है।)
३. अवधिज्ञानी ४. मन:पर्यवज्ञानी ५. उपशान्त मोही गति—विषय-कषाय के वश चारों गतियों में जाते हैं ॥८१० ।।
|११५ द्वार : |
क्षेत्रातीत
जमणुग्गए रविंमि अतावखेत्तंमि गहियमसणाइ । कप्पइ न तमुवभोत्तुं खेत्ताईयंति समउत्ती ॥८११ ॥
-विवेचनक्षेत्रातीत–सूर्योदय से पहले आतपरहित क्षेत्र में ग्रहण किया हुआ अशन, पान, खादिम और स्वादिम क्षेत्रातीत होने से मुनि को उपयोग करना नहीं कल्पता है।
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