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________________ १९८ सौधर्म और ईशान देवलोक की देवियों की जघन्य स्थिति क्रमश: एक पल्योपम तथा साधिक एक पल्योपम की है। सौधर्म देवलोक में परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति सात पल्योपम की तथा अपरिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति पचास पल्योपम की है । ईशान देवलोक में परिगृहीता एवं अपरिगृहीता की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः नौ पल्योपम एवं पचपन पल्योपम की है ।। ११४५-४६ ।। -विवेचन पूर्वभव सम्बन्धी विशिष्ट पुण्यबल से महान् सुख को पाने वाले प्राणी विशेष । उनके देव = चार प्रकार हैं (i) भवनपति (ii) व्यतंर (i) भवनपति भवन आवास (ii) वाणव्यन्तर- व्यन्तर (iii) ज्योतिष Jain Education International द्वार १९४ (iii) ज्योतिष और (iv) वैमानिक | विशेष रूप से जो भवनों में निवास करते हैं, वे भवनपति कहलाते हैं । (यद्यपि नागकुमार आदि देव, भवनों में निवास करते हैं तथा असुरकुमार 'आवास' में रहते हैं, तथापि बाहुल्य की अपेक्षा से सभी 'भवनपति' कहलाते हैं ।) जो विमान बाहर से वृत्त, भीतर से समचतुरस्त्र तथा नीचे से कर्णिका युक्त होते हैं, वे भवन कहलाते हैं । वे अनेकविध मणिरत्नों के प्रकाश से समस्त दिशाओं को आलोकित करते हैं । जो विमान देह प्रमाण बड़े मण्डप की तरह होते हैं, वे आवास कहलाते हैं । विविध अन्तरालों में अर्थात् पर्वत, गुफा, वन आदि के अन्तराल मध्य में निवास है जिनका वे 'वनान्तर' कहलाते हैं। अथवा चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि पुण्यपुरुषों की दास की तरह सेवा करने से जिनमें मनुष्यों की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है ऐसे देव 'विगतान्तरा' भी कहलाते हैं । प्राकृत 'वाणमंतर' ऐसा पाठ है अथवा 'वानमंतरा' ऐसा संस्कारित पद है । इसका अर्थ है कि— वनों के अन्तर, 'वनान्तर' हैं और उनमें उत्पन्न होने वाले अथवा रहने वाले देव विशेष 'वानमन्तर' कहलाते हैं । यहाँ 'वन + अन्तर' के मध्य 'म' पृषोदरादि मान कर हुआ है । यह 'वानमन्तर' शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त है । प्रवृत्ति निमित्त तो सर्वत्र 'जातिभेद' है । विश्व को आलोकित करने वाले विमानों के वासी देव ज्योतिष् कहलाते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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