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________________ द्वार ११२ अपवाद–चौथे भांगे से उपलब्ध वसति यद्यपि साधु के लिये अकल्प्य है तथापि किसी स्थान पर ऐसी ही वसति हो और श्रावक साधु-समाचारी में निपुण होने से साधु को विनती करे कि “भगवन् ! आप इस वसति को ग्रहण करिये तथा हम सब में से किसी एक को शय्यातर बनाइये।" ऐसी स्थिति में साधु भी किसी एक को शय्यातर मानकर वसति ग्रहण करे और शेष घरों से भिक्षा अथवा–यदि वहाँ साधु अधिक हो और सभी का निर्वाह सरलता से हो जाता हो तथा सभी श्रावकों ने वसति दान किया हो तो सभी वसति के मालिकों को शय्यातर माने। यदि सरलता से निर्वाह न होता हो और सभी ने वसति न दी हो तो एक शय्यातर माना जाता है। दो शय्यातर हो तो एकान्तर दिन से उसके घर से भिक्षा ग्रहण करें। तीन शय्यातर हो तो तीसरे दिन, चार शय्यातर हो तो चौथे दिन शय्यातर के घर से भिक्षा ग्रहण करे । इस प्रकार आगे भी समझना ।।८००-८०१ ॥ प्रश्न-वसतिदाता शय्यातर कब बनता है? उत्तर-जिसके अवग्रह में मनि रात को सोए हों और जिसके अवग्रह में राइ-प्रतिक्रमण किया हो वे दोनों शय्यातर कहलाते हैं। (यद्यपि आवश्यक किये बिना मुनि को शयनस्थान से अन्य स्थान पर जाना नहीं कल्पता तथापि कदाचित् सार्थ आदि के साथ विहार करते समय चौरादि के भय से आवश्यक किये बिना भी अन्य स्थान पर जाना पड़ सकता है) ॥८०२॥ • संथारा व राइ प्रतिक्रमण एक वसति में किया हो पश्चात् दूसरी वसति में चले जाने पर भी शय्यातर वही माना जाता है जिसकी वसति में संथारा व प्रतिक्रमण किया हो। • जिस मालिक की वसति में मुनि ठहरे हो उस वसति में यदि सारी रात जगते रहे और प्रभातकालीन प्रतिक्रमण किसी अन्य की वसति में जाकर करे तो मूल वसति का मालिक शय्यातर नहीं माना जाता किन्तु जिसके घर राइ-प्रतिक्रमण किया है वही शय्यातर कहलाता • वसति छोटी होने से मुनियों को अलग-अलग रहना पड़े तो आचार्य गुरु आदि जिसकी वसति में ठहरे हो वही सबका शय्यातर माना जाता है, अन्य नहीं । प्रश्न-वसतिदाता परदेश चला गया हो तो वह शय्यातर माना जाता है या नहीं? ||८०३ ॥ उत्तर- भले वसति का मालिक परिवार सहित परदेश चला गया हो फिर भी शय्यातर वही माना जाता है क्योंकि वसति का अधिपति वही है ।।८०४ ॥ किन साधुओं से सम्बन्धित शय्यातर के घर से भिक्षा लेना नहीं कल्पता। • साधु के गुण से रहित मात्र वेषधारी मुनि को वसति देने वाले शय्यातर के घर से भी भिक्षा लेना संयमी-मुनि को नहीं कल्पता तो संयमी मुनियों को वसति देने वाले गृहस्थ के घर की भिक्षा कल्पने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न-वेषधारी साधु से सम्बन्धित शय्यातर के घर से भिक्षा लेना मुनियों को क्यों नहीं कल्पता? उत्तर—यद्यपि साधु वेषधारी है फिर भी साधुत्व का चिह्न-रूप रजोहरण उसके पास होने से वेष से वह भी साधु कहलाता है। अत: उसके शय्यातर के घर से भी साधुओं को भिक्षा लेना नहीं कल्पता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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