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________________ प्रवचन-सारोद्धार १८९ -गाथार्थजीवों की लेश्या बादर पृथ्विकाय, बादर अप्काय, बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय में चार लेश्याये हैं। गर्भज तिर्यंच और मनुष्य में छ: लेश्यायें होती हैं तथा शेष जीवों में तीन लेश्यायें हैं ।।१११० ।। -विवेचन १. बादर पर्याप्ता पृथ्वीकाय में कृष्ण, नील, कापोत और तेजो चार लेश्यायें हैं। २. बादर पर्याप्ता अप्काय में कृष्ण, नील, कापोत और तेजो चार लेश्यायें हैं। ३. प्रत्येक पर्याप्ता वनस्पति में कृष्ण, नील, कापोत और तेजो चार लेश्यायें है४. बादर पर्याप्ता तेउकाय में—कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यायें हैं । ५. बादर पर्याप्ता वायुकाय में –कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यायें हैं। ६. पाँच सूक्ष्म स्थावर के पर्याप्ता, अपर्याप्ता में कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यायें है। ७. पाँच बादर स्थावर के अपर्याप्ता और साधारण वनस्पतिकाय में-कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यायें हैं। ८. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यायें हैं। ९. संमूर्छिम पञ्चेन्द्रिय, तिर्यंच और मनुष्य में कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यायें हैं। १०. गर्भज तिर्यंच और मनुष्य में-छ: लेश्यायें हैं। प्रश्न—बादर पर्याप्ता पृथ्वी आदि में तेजो लेश्या कैसे संभव होगी? उत्तर-ईशान देवलोक तक के देवता मर कर बादर पर्याप्ता पृथ्वी, पानी और वनस्पति में उत्पन्न होते हैं। देव और नारकी के लिये यह नियम है कि वे स्वभव सम्बन्धी लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर दूसरे भव में जाते हैं, इस कारण बादर पर्याप्त पृथ्वी आदि में उत्पन्न होने वाले देव-देवभव सम्बन्धी तेजो लेश्या लेकर आते हैं। आगम में कहा है कि जिन लेश्या द्रव्यों को लेकर जीव मरता है, उत्पन्न होते समय उसकी वही लेश्या होती है। तिर्यंच व मुनष्य आगामी भवसंबंधी लेश्या परिणाम आ जाने के अन्तर्महर्त्त पश्चात मरते हैं और देव नारक स्वभव सम्बन्धी लेश्या का अन्तर्महत काल शेष रहने पर मरते हैं। अत: तिर्यंच व मनुष्य में मरने के बाद पूर्वभव सम्बन्धी लेश्या नहीं होती। जबकि देव-नरक के जीवों में मरने के बाद पूर्व भव सम्बन्धी लेश्यायें अन्तर्मुहूर्त तक रहती हैं। लेश्या की स्थितिनाम जघन्य उत्कृष्ट १. कृष्ण लेश्या अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त २. नील लेश्या अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ३. कापोत लेश्या अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ४. तेजो लेश्या अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ५. पद्म लेश्या अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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