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द्वार ११२
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११२ द्वार:
शय्यातर-पिण्ड
सेज्जायरो पहू वा पहुसंदिट्ठो य होइ कायव्वो। एगो णेगे य पहू पहुसंदिद्वेवि एमेव ॥८०० ॥ सागारियसंदिढे एगमणेगे चउक्कभयणा उ। एगमणेगा वज्जा णेगेसु य ठावए एगं ॥८०१ ॥ अन्नत्थ वसेऊणं आवस्सग चरिममन्नहिं तु करे । दोन्निवि तरा भवंती सत्थाइसु अन्नहा भयणा ॥८०२ ॥ जइ जग्गंति सुविहिया करेंति आवस्सयं तु अन्नत्थ । सिज्जायरो न होई सुत्ते व कए व सो होई ॥८०३ ॥ दाऊण गेहं तु सपुत्तदारो, वाणिज्जमाईहि उ कारणेहिं । तं चेव अन्नं व वएज्ज देसं, सेज्जायरो तत्थ स एव होइ ॥८०४ ॥ लिंगत्थस्सवि वज्जो तं परिहरओ व भुंजओ वावि । जुत्तस्स अजुत्तस्स व रसावणे तत्थ दिटुंतो ॥८०५ ॥ तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं उग्गमोवि य न सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेज्जा उ वोच्छेओ ॥८०६ ॥ पुरपच्छिमवज्जेहिं अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य न य सागरिअस्स पिंडो उ॥८०७ ॥ बाहुल्ला गच्छस्स उ पढमालियपाणगाइकज्जेसु । सज्झायकरणआउट्टिया करे उग्गमेगयरं ॥८०८ ॥
-गाथार्थशय्यातरपिंड-वसति का मालिक या उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति शय्यातर माना जाता है। ये एक और अनेक दोनों हो सकते हैं। वसति का स्वामी और उसके द्वारा नियुक्त के एक और अनेक के साथ मिलकर चार भांगें होते हैं। इनमें से एक और अनेक दोनों का त्याग करना चाहिये और अनेक में से एक को शय्यातर बनाना चाहिये ।।८००-८०१ ॥
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