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द्वार ९६७-१६८
१. शुद्धनय – नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन नय शुद्ध नय हैं। शुद्ध अर्थात् कर्म से मलिन जीवात्मा को शोधन करने वाले । यहाँ शुद्ध शब्द में अन्तर्निहित प्रेरणा होने से इसका अर्थ होता है— दूसरों को शुद्ध करने वाला ।
नैगमादि तीन नय विविध पर्यायों में अनुगत द्रव्य को मान्यता देते हैं। इससे कृतकर्म फल भोग और अकृत का अनागमन संभव होता है अर्थात् कृत-नाश और अकृत-आगम जैसे दोष यहाँ पर नहीं आते । इन नयों की अपेक्षा से धर्म देशनादि में प्रवृत्त होने वाले आत्मा की वास्तविक शुद्धि हो सकती है, अतः ये शुद्ध नय कहलाते हैं ।
ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायमात्र को मानने वाले हैं। पर्यायें परस्पर भिन्न होने से अशुद्ध हैं । इसमें कृतनाश और अकृत आगम के दोष आते हैं । मानव- पर्याय में किये गये कर्म का फल मानव को न मिलकर देव पर्याय को मिलता है, जिसने कि कर्म किया ही नहीं है । तब तो कोई धर्म करने में प्रवृत्त ही नहीं होगा। क्योंकि कृत कर्म का फल तो उसे मिलता ही नहीं, ऐसी स्थिति में जीव की शुद्धि नहीं होगी । अतः ये नय अशुद्ध कहलाते हैं ।
अथवा 'सुद्धनयाणं च सव्वेसि' इस मूल पाठ में प्राकृत के नियमानुसार 'सुद्धनयाणं' से पूर्व 'अ' का लोप हो चुका है। अतः इसका अर्थ पूर्व की अपेक्षा सर्वथा भिन्न हो जाता है । उसका सारांश यह है कि - अशुद्धनयों की अपेक्षा से संरंभ आदि तीन मान्य हैं। शुद्ध नयों को नहीं । नैगम, व्यवहार और संग्रह रूप प्रथम तीन नय व्यवहारपरक होने से अशुद्ध हैं तथा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ व एवंभूत – ये चार नय निश्चयपरक होने से शुद्ध हैं। उनके मत में मात्र संरंभ ही हिंसारूप है, समारंभ और आरंभ नहीं। ये चारों नय निश्चय प्रधान होने से हिंसा के विचार से युक्त आत्मा को ही हिंसा मानते हैं । “आया चेवउ हिंसा.....।" समारंभ और आरंभ हिंसात्मक क्रियारूप होने से ये नय उन्हें वास्तविक हिंसा नहीं मानते || १०६० ॥
१६८ द्वार :
ब्रह्मचर्य-भेद
दिव्वा कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई । ओरालियाउवि तहा तं बंभं अट्ठदसभेयं ॥ १०६१ ॥ -गाथार्थ
ब्रह्मचर्य के १८ भेद - दिव्यकामरति सुख का त्रिविध-त्रिविधेन त्याग करने रूप नौ प्रकार की विरति तथा औदारिक शरीर संम्बन्धी नौ प्रकार की विरति - इस प्रकार ब्रह्मचर्य के १८ भेद हैं ।। १०६१ ॥
-विवेचन
वैक्रिय शरीर सम्बन्धी, दिव्यविषयों की भोगासक्ति का, तीन करण (करना, कराना और अनुमोदन करना) और तीन योग (मन, वचन, काया) से त्याग करना = ९ भेद ब्रह्मचर्य के ।
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