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________________ प्रवचन-सारोद्धार १३१ :20403333:51 १३-१४. वैहायस और गृध्रपृष्ठ-मरण-अपने शरीर को गृध्र आदि का भक्ष्य बनाकर मरना गृध्रपृष्ठ मरण है। वृक्ष, पर्वत आदि से लटककर, गिरकर मरना वैहायस मरण है। आगाढ़ कारण उपस्थिति होने पर इन दोनों मरण की अनुज्ञा परमात्मा ने दी है।। १०१६ ।। । १५-१६-१७. भक्तपरिज्ञा-इंगिनी एवं पादपोपगमन मरण-भक्त परिज्ञामरण, इंगिनीमरण तथा पादपोपगमन मरण-ये तीनों ही मरण धृति और संघयण की उत्तरोत्तर विशिष्टता के कारण से क्रमश: जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट कहलाते हैं । १०१७ ॥ -विवेचन१. आवीचि-मरण-जिस प्रकार उत्तर लहर का उठना और पूर्व लहर का नष्ट होना सतत चलता रहता है, वैसे आयुकर्म के उत्तर-दलिकों का उदय में आना एवं पूर्व-पूर्व दलिकों का उदय में आकर क्षीण होते रहना, आवीचि-मरण कहलाता है। अथवा जैसे लहरों का कोई अंत नहीं होता, वैसे जिस मरण का भी कभी अंत नहीं होता, प्रत्युत प्रतिसमय चलता रहता है, वह आवीचि-मरण कहलाता है। वीचि = अंत होना, जिसका अंत नहीं होता वह आवीचि मरण है । इसके पाँच प्रकार हैं द्रव्यत:-नरक, तिर्यंच आदि चारों गतियों में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत, प्रतिसमय अपनी-अपनी आयु के दलिकों को भोगकर नाश करना द्रव्य आवीचिमरण है। क्षेत्रत:-अपनी-अपनी आयु के भोगने योग्य क्षेत्र में प्रतिसमय आयुकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करना। चार गति की अपेक्षा से तत्सम्बन्धी क्षेत्र भी चार प्रकार का है। कालत:-अपने-अपने आयुकाल में प्रतिसमय आयुकर्म की निर्जरा करना। यहाँ काल का अर्थ है आयुकाल, नहीं कि अद्धाकाल (सूर्य आदि की क्रिया से व्यक्त होने वाला समय) क्योंकि अद्धाकाल देवलोक आदि में नहीं होता। चार प्रकार की आयु की अपेक्षा यह मरण भी चार प्रकार का है। भवत:-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव भव में प्रतिसमय आयुकर्म की निर्जरा करना। नरकादि भवों की अपेक्षा से यह मरण चार प्रकार का है। ___ भावत:-नरकादि की आयु क्षय करना। आयु-क्षय रूप भाव की प्रधानता की अपेक्षा से यह भाव आवीचिमरण कहलाता है ॥१००८ ।। २. अवधिमरण-जैसे आवीचिमरण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से पाँच प्रकार का है, वैसे अवधिमरण के भी पाँच भेद हैं। अवधि अर्थात् मर्यादा। अवधि सापेक्ष मरण अवधि मरण अर्थात् जिन पुद्गलों की अपेक्षा मरा था, उन्हीं पुद्गलों की अपेक्षा से पुन: कालान्तर में मरना अवधिमरण (i) द्रव्यत:-सारांश यह है कि नरकादि भवों के हेतुभूत आयुकर्म के जिन पुद्गलों को भोगकर जीव मरा था, उन्हीं पुद्गलों को कालान्तर में भोगकर जब भी वह मरेगा, वह मरण अवधिमरण कहलायेगा। क्योंकि उन पुद्गलों को पुन: ग्रहण करने की अवधि तक उन पुद्गलों की अपेक्षा से जीव मृत होता है। जैसे मनुष्य आयु के पुद्गलों को भोगकर मरने के पश्चात् पुन: जब भी उस आयु के पुद्गलों को भोगकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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