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द्वार ९०
होती है । यह क्रम अन्तिम समय तक चलता है । साथ ही पर प्रकृति में प्रक्षेप प्रतिसमय उपशमित दलिकों की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुण अधिक दलिकों का होता है। यह प्रक्षेप उपान्त्य समय तक ही होता है कारण, चरम समय में संक्रमण योग्य दलिक की अपेक्षा, उपशम योग्य दलिक असंख्यात गुण अधिक होता है
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इसी प्रकार एक-एक अन्तर्मुहूर्त में स्त्रीवेद व हास्यषट्क का उपशम तथा पुरुषवेद के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है । तत्पश्चात् एक समय न्यून दो आवलिका में सम्पूर्ण पुरुषवेद का, अन्तर्मुहूर्त काल में अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण क्रोध का उपशम तथा संज्वलन क्रोध के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है । पश्चात् एक समय न्यून दो आवलिका में संज्वलन - क्रोध, अन्तर्मुहूर्त में अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम तथा संज्वलन मान के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है पश्चात् एक समय न्यून दो आवलिका में वह भी उपशान्त हो जाता
है । तदनन्तर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम तथा संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है । संज्वलन माया की प्रथम स्थिति सम्बन्धी आवलिका प्रमाण दलिक तथा एक समय न्यून दो आवलिका में बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक भी उपशान्त हो जाते हैं। तत्पश्चात् संज्वलन माया की प्रथम स्थिति सम्बन्धी आवलिका गत दलिक स्तिबुक संक्रमण से संज्वलन लोभ में संक्रान्त हो जाता है । पश्चात् एक समय न्यून दो आवलिका में बद्ध दलिक का उपशम होकर संज्वलन लोभ में संक्रमण होता है
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संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा के विच्छेद होने के समयान्तर बाद ही संज्वलन - लोभ की दूसरी स्थिति के दलिकों के प्रथम - स्थिति की रचना होती है । उस समय मात्र लोभ का ही वेदन रहता है । लोभ का वेदन- काल तीन भागों में विभक्त हो जाता है ।
(i) अश्वकर्णकरणाद्धा, (ii) किट्टीकरणाद्धा, (iii) किट्टीवेदनाद्धा
(i) प्रथम विभाग में संज्वलन लोभ की दूसरी स्थिति में से दलिकों को ग्रहण करके प्रथम स्थिति की रचना होती है और आत्मा उनका वेदन करता है । पूर्व स्पर्धकवर्ती दलिकों को रसहीन करने का कार्य तथा अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन लोभ की उपशमना का प्रारम्भ भी इसी में होता है । एक समय न्यून दो आवलिका में संज्वलन माया की उपशमना के साथ अश्वकर्णकरणाद्धा पूर्ण हो जाता है।
(ii) द्वितीय विभाग में दूसरी स्थिति के दलिकों से प्रथम स्थिति की रचना होती है और उनका वेदन भी होता है। पूर्व व अपूर्व स्पर्धकों के दलिकों को अनन्त गुण रसहीन करके किट्टीकरण भी इसी समय में होता है । किट्टीकरणाद्धा के चरम समय में एक ही साथ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभ की उपशमना तथा संज्वलन लोभ का बंध व बादर संज्वलन लोभ के उदय, उदीरणा का विच्छेद जाता है । अन्त में आत्मा नौवें गुणस्थान से निकलकर दसवें 'सूक्ष्मसंपराय' गुणस्थान में प्रविष्ट होता
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(iii) दसवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त का है । यहाँ आत्मा दूसरी स्थिति के रसहीन कुछ
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